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संयमाधिकार ८
युक्ताहार विहार १२. मनो मौन २००. सुलभं वागनुच्चारं, मौनमेकेन्द्रियेष्वपि ।
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु, योगीनां मौनमुत्तमम् ॥ ज्ञान० सा० । १३.७
तु० = स० श०।१७ वचन को रोक लेना बहुत सुलभ है। ऐसा मौन तो एकेन्द्रियादिकों को (वृक्षादिकों को) भी होता है । देहादि अनात्मभूत पदार्थों में मन की प्रवृत्ति का न होना ही योगियों का उत्तम मौन है। २०१. जं मया दिस्सदे रूवं, तंण जाणादि सव्वहा ।
जाणगं दिस्सदे णं तं, तम्हा जंपेमि केण हैं । मो० पा०।२९
तु० == ज्ञा० सा० । १३.८ यत् मया दृश्यते रूपं, तत् न जानाति सर्वथा। ज्ञायकं दृश्यते न तत् , तस्मात् जल्पामि केन अहम् ॥
जिस रूप को (देह को) मैं अपने समक्ष देखता हूँ, वह जड़ होने के कारण कुछ भी जानता नहीं है। और इसमें जो ज्ञायक आत्मा है, वह दिखाई नहीं देता। तब मैं किसके साथ बोलू ? १३. युक्ताहार विहार २०२. इहलोगणिरवेक्खो, अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि ।
जुत्ताहारविहारो, रहिदकसाओ हवे समणो ।। प्र० सा० । २२६
तु० = दशवै०। ९.३.५ इहलोकनिरपेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके। युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ॥
जो योगी इस लोक के सुख व स्थाति प्रतिष्ठा आदि से निरपेक्ष है, और परलोक विषयक सुख-दुख आदि की कामना से रहित (अप्रतिवद्ध) है, रागद्वेषादि कषायों से रहित है और युक्ताहार विहारी है, वह श्रमण है। १. विशेष दे० गा० २५१-२५३
तप व ध्यान अधिकार
(राज योग) जीवन की विविध कमजोरियों व भयों को जीतने के लिए तप अत्यन्त आवश्यक है। अनशन आदि शारीरिक ता बाह्य हैं और प्रायश्चित स्वाध्याय ध्यान आदि मानसिक तप आभ्यन्तर।
__ मंत्र के जप व तत्त्व-चिन्तन आदि के अभ्यास से योगी धीरे-धीरे निरालम्ब दशा को प्राप्त हो जाता है। तब उसके लिए न कुछ करने को शेष रहता है, न बोलने को और न विचारने को।
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