Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 52
________________ संयमाधिकार ८ • समिति-सूत्र हदय में ममत्व भाव का प्रसार रखकर, समता के बिना की गयी सामायिक वास्तव में मायिक अर्थात् दम्भ है। समतायुक्त साधु-जनों के समान सद्गुणों का लाभ हो जाने पर ही सामायिक शुद्ध कही जाती है। १९० सामाइयं उ कए, समणो इव सावहो हवाइ जम्हा । एएण कारणेण बहुसो सामाइयं कुज्जा। वि० आ० भा० ।२६९० (३१७३) मू० आ० ।५३१ (७. ३९) सामायिके तु कृते श्रमण इव श्रावको भवति यस्मात् । एतेन कारणेन बहुशः सामायिकं कुर्यात् ॥ सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए सामायिक दिन में अनेक बार' करनी चाहिए। १०. समिति-सूत्र (यतना-सूत्र) १९१. इरियाभासेसणादाणे, उच्चारे समिई इय । मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती य अठ्ठमा ।। १९२. एयाओ पंचसमिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो ॥ उत्तरा० । २४.२, २६ तु० - मू० आ।१०+३३०-३३११ ईर्याभाषणाऽऽदाने उच्चारे समितिः इति । मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च अष्टमी ॥ एताः पंचसमितयः चरणस्य च प्रवर्तने । गुप्तयः निवर्तने प्रोक्ताः अशुभार्थेषु सर्वशः। (चलने बोलने खाने आदि में यत्नाचार पूर्वक बरतना समिति कहलाती है।) वह पांच प्रकार की है-ई, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उपचार प्रतिष्ठापन। मन वचन व काय को वश में रखना ये तीन गुप्तियाँ है। पंच समितियां तो चारित्र के क्षेत्र में प्रवृत्ति परक है और गुप्तियाँ समस्त अशुभ व्यापारों के प्रति निवृत्तिपरक है। संयमाधिकार ८ समिति-सूत्र १९३. फासुयमग्गेण दिवा, जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण । जंतूण परिहरंति, इरियासमिदी हवे गमणं ।। मू० आ० । ११. (१.१३) तु०-उत्तरा० । २४.७ प्रासुकमार्गेण दिवा युगन्तरप्रेक्षिणा सकार्येण । जन्तून परिहरता ईर्यासमितिः भवेद् गमनम् ॥ जिसमें जीव-जन्तुओं का आना-जाना प्रारम्भ हो गया है, ऐसे प्रासक मार्ग से, दिन के समय अर्थात् सूर्य के प्रकाश में, चार हाथ परिमाण भूमि को आगे देखते हुए चलना, ईर्या समिति कहलाता है। ( कोई क्षुद्र जीव पाँव के नीचे आकर मर न जाये ऐसा प्रयत्न रखना ईर्या समिति है)। १९४. पेसुण्णहासकक्कस-परणिदाप्पप्पसंसाविकहादी । वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी वे कहणं ।। मू० आ० । १२ (१.१४) तु०=उत्तरा० । २४.१०+ ____ दशव०। ७.३.५६ व ९.३.९ इन सबका संग्रह पैशून्यहास्यकर्कश-परनिन्दाऽऽत्मप्रशंसाविकथादीन् । वर्जयित्वा स्वपरहितं भाषासमितिः भवेत् कथनम् ॥ (किसीको मेरे वचन से कोई पीड़ा न पहुंचे, इस उद्देश्य से साधु) पैशन्य, उपहास, कर्कश, पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, राग-द्वेष-वर्धक चर्चाएं, आदि स्व-पर अनिष्टकारी जितने भी वचन हो सकते हैं, उन सबका त्याग करके, प्रयत्नपूर्वक स्व-पर हितकारी ही वचन बोलता है। यही उसकी भाषा समिति है। १९५. उद्देसियं कीयगडं पूइकम्मं च आहडं । अज्झोयरपामिच्च मीसजायं विवज्जए। तु०-मू: आ.(८.४०) औद्देशिक क्रीतकृतं पूतिकर्म च आहृतम् । अध्यकपूरकं प्रामित्यं मिश्रजातं विवर्जयेत् ॥ १. प्रभात, मध्याद व सन्ध्या इन तीनो मन्धिकालों में सामायिक करने का व्यवहार है। २. दे० गा० १५१-१५२ ३. मू० आ०। (१.१२ + ५. १५२-१५३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.janelibrary.org

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