Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 48
________________ अस्तेय सूत्र संयमाधिकार ८ वान व अप्रमत्त हैं, समिति-परायण है, उनको किसी जीव की हिंसा मात्र से बन्ध नहीं होता ।" ४. सत्य-सूत्र १६८. प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृत व्रतमुच्यते । तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत् ॥ योगशास्त्र । १.२१ ७२ तु० = शा० । ९.३ प्रिय, हितकारी व सत्य वचन बोलना सत्य व्रत कहलाता है । यहाँ इतना विवेक रखना आवश्यक है कि तथ्य वचन भी सत्य नहीं माना जाता, यदि वह अप्रिय हो या अहितकर हो । [ यथा एक नेत्र वाले को काना कहना, अथवा किसी बधिक को यह बताना कि इस जंगल में हिरण बहुत रहते हैं । ] १६९. पत्थं हिदयाणिट्ठे पि, भण्णमाणस्स सगणवासिस्स । कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स ॥ भ० आ०। ३५७ तु० उत्तरा० । १९.२७ पथ्यं हृदयानिष्टमपि, भण्यमाणस्य स्वगण वसतः । कटुकमिवौषधं तु, मधुरविपाकं भवति तस्य ॥ हे मुनियो ! तुम अपने संघवालों के साथ हितकर वचन बोलो। यदि कदाचित् वे हृदय को अप्रिय भी लगें, तो भी कोई हर्ज नहीं । क्योंकि कटुक औषधि भी परिणाम में मधुर व कल्याणकर ही होती है । ५. अस्तेय ( अचौर्य) - सूत्र १७०. चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहंसि अजाइया ॥ दशवे० । ६.१४ १. प्रयत्नवान् व्यक्ति स्वयं तो किसी की हिंसा के भाव करता ही नहीं। फिर भी चलतेफिरते, उठते-बैठते उससे यदि कदाचित कोई छोटा-मोटा जीव आहत हो जाये, तो उसकी हिंसा का दोष उसे नहीं लगता है। Jain Education International तु० ० ० २९१ (५.११२) संयमाधिकार ८ ७३ चित्तवद् अचित्तं वा अल्पं वा यदि वा बहुं । दन्तशोधनमात्रमपि, अवग्रहे अयाचित्वा ॥ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दाँत कुरेदने की सोंक भी क्यों न हो, महाव्रती साधु गृहस्थ की आज्ञा के बिना ग्रहण न करे । For Private & Personal Use Only अस्तेय-सूत्र नि० सा० । ५८ १७१. गामे वा णयरे वा, रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुंचदि गणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥ तु० - आचारांग । २४.४२ (१०४६) ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमार्थम् । यो मुञ्चति ग्रहणभावं तृतीयं व्रतं भवति तस्यैव ॥ ग्राम में, नगर में या वन में परायी वस्तु को देखकर जो मन में उसके ग्रहण करने का भाव नहीं लाता है, उसको तीसरा (अस्तेय या अचौर्य) महाव्रत होता है । १७२. वज्जिज्जा तेनाहडतक्करजोगं विरुद्ध रज्जं च । कूडतुल- कूडमाणं, तप्पडिरूवं च ववहारं ॥ सावय पण्णति । २६८ तु०त० सू० । ७.२७ वर्जयेत् स्तेनाहुतं, तस्करप्रयोगं विरुद्ध राज्यं च । कूटतुला कूटमाने, तत्प्रतिरूपं च व्यवहारम् ॥ [ महाव्रती साधु को तो इन बातों से कोई सम्बन्ध नहीं होता, रन्तु अस्तेय अणुव्रत के धारी श्रावक के लिए ये पांच बातें अस्तेय त के अतिचार या दोषरूप बतायी गयी हैं--] चोरी का माल लेना, स्वयं व्यापार में छिपने-छिपाने रूप जैसे कर प्रयोग करना, राज्याज्ञा का उल्लंघन करना ( घूसखोरी लैक मार्केट, स्मग्लिंग, टैक्स व रेलवे टिकट की चोरी आदि), नापपौल की गड़बड़ व मिलावट आदि सब चोरी के तुल्य हैं। www.jainelibrary.orgPage Navigation
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