Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 29
________________ सम्य० अधि०४ भाव-संशुद्धि अभ्यन्तरशुद्धेः, बाह्यशुद्धिरपि भवति नियमेन । अभ्यन्तरदोषेण हि, करोति नरः बाह्यान् दोषान् ॥ अभ्यन्तर शुद्धि के होने पर बाह्य शुद्धि नियम से होती है। अभ्यन्तर परिणामों के मलिन होने पर मनुष्य शरीर व वचन से अवश्य ही दोष उत्पन्न करता है। (तात्पर्य यह कि निःशंकित या अभयत्व आदि भावों से युक्त चित्त-शुद्धि का हो जाना ही सम्यग्दर्शन का प्रधान चिह्न है।) . सम्य० अधि०४ - भाव-संशुद्धि धर्मकथाकथनेन च, बाह्ययोगैश्चापि अनवद्यैः। धर्मः प्रभावयितव्यः जीवेषु दयानुकम्पया ॥ धर्मोपदेश के द्वारा, अथवा स्व-परोपकारी शुभ क्रियाओं के द्वारा, अथवा जीवों में दया व अनुकम्पा के द्वारा ( उपलक्षण से प्रेम, दान व सेवा आदि के द्वारा) धर्म की प्रभावना करना कर्तव्य है। १६. भाव-संशुद्धि ७६. मदमाणमायलोह-विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं ।। नि० सा०। ११२ तु= उत्तरा० । २९.३६ मदमानमायलोभविजितभावस्तु भावशुद्धिरिति । परिकथितो भव्यानां, लोकालोकप्रशिभिः ॥ लोकालोकदर्शी सर्वज्ञ भगवान् ने, भव्यों के मद मान माया व लोभविवजित निर्मल भाव को भाव-शुद्धि कहा है। ७७. मनः शुद्धिमविभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये। त्यक्त्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम् ॥ योगशास्त्र । ४.४२ तु० = आ० अनु० । २१३ मन की शुद्धि को प्राप्त किये बिना जो अज्ञ जन मोक्ष के लिए तप करते हैं, वे नाव को छोड़कर महासागर को भुजाओं से तैरने की इच्छा करते है। ( अर्थात् बिना चित्त-शुद्धि के मोक्ष-मार्ग में गमन सम्भव नहीं।) (भाव से विरक्त व्यक्ति जल में कमलबत् अलिप्त रहता है।) ७८. अब्भंतरसोधीए, बाहिर सोधी वि होदि णियमेण । अब्भंतरदोसेण हु, कुदि णरो बाहिरे दोसे ।। भ० आ० । १९१६ तु = पिण्ड नियुक्ति । ५३० ____ Jain Education international१.दे गा .१३२। For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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