Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 30
________________ ज्ञानाधिकार ५ निश्चय ज्ञान सम्यग्ज्ञान अधिकार (सांख्य योग) आत्मा के अतिरिक्त देह आदि समस्त जागतिक पदार्थों को अनित्य, असत्य, संयोगज, अशरण व दुःख के हेतु जानकर, वैराग्य व समतायुक्त हो उनका ममत्व त्यागकर, आत्मा व धर्म की शरण को प्राप्त होनेवाला ही सम्यग्ज्ञानी है, अपने-अपने पक्ष का पोषण करने में रत ज्ञानाभिमानी तथाकथित शास्त्रज्ञ या पण्डित नहीं। १. सम्यग्ज्ञान-सूत्र (अध्यात्म विवेक) ७९. संसयविमोहविब्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स । गहणं सम्मण्णाणं, सायारमणेयभेयं तु॥ द्र०सं०। ४२ तु०= दे० अगली गाथा ८० संशयविमोहविभ्रमविजितं आत्मपरस्वरूपस्य। ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं, साकारमनेकभेदं च ॥ आत्मा व अनात्मा' के स्वरूप को संशय, बिमोह, विभ्रमरहित जानना सम्यग्ज्ञान है, जो सविकल्प व साकार रूप होने के कारण अनेक भेदोंवाला होता है। ८०. भिन्नाः प्रत्येकमात्मानो, विभिन्नाः पुद्गलाः अपि । शून्यः संसर्ग इत्येवं, यः पश्यति स पश्यति ॥ अध्या० सा०। ८.२१ तु०= दे० गा०७९ प्रत्येक आत्मा तथा शरीर मन आदि सभी पुद्गल भी परस्पर एकदूसरे से भिन्न है। देह व जीव का अथवा पिता पुत्रादि का संसर्ग कोई वस्तु नहीं है। जो ऐसा देखता है वही वास्तव में देखता है। २. निश्चय ज्ञान ( अध्यात्म शासन) ८१. जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुळं अणण्णमविसेसं । अपदेससुत्तमज्झं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।। स० सा०।१५ तु०- अध्या० सा० । १८.२ यः पश्यति आत्मानं, अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषं । अपदेशसूत्रमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥ जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य व अविशेष देखता है, वह शास्त्र-ज्ञान के रूप में अथवा भाव-ज्ञान के रूप में सकल जिन-शासन को देखता है। १. आत्मा चेतन खभावी व अमूर्तिक है, तथा देह, मन, वाणी, राग-देवादि सर्व विकारी भाव भीर कर्म जड़ खभावी पुद्गल (अनात्मा)है। देगा० २५८-३००। For Private & Personal use only ___www.janelibrary.org Jain Education International

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