Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 45
________________ साधनाधिकार ७ अप्रमाद-सूत्र १५४. उक्कोस्स चरित्तोऽवि य, परिवडइ मिच्छभावणं कुणइ। किं पुण सम्मद्दिट्ठी, सराग धम्ममि वट्टतो।। मरण समा० । १५२ तु० = रा० वा० । १०.१.३ उत्कृष्टचारित्रोऽपि च परिपतति मिथ्यात्वभावनां करोति । किं पुनः सम्यग्दृष्टिः सरागधर्मे वर्तमानः॥ लगभग चरमदशा को प्राप्त उत्कृष्ट चारित्रवान भी, कभी-कभी मिथ्यात्व भाव का चिन्तवन करके नीचे गिर जाता है, तब फिर सराग धर्म की साधना में वर्त्तने वाले सम्यग्दृष्टि की तो बात ही क्या, (क्योंकि भले ही दृष्टि प्राप्त हो गयी हो, परन्तु आत्म-स्थिरता न होने के कारण वह अभी एक शक्तिहीन बालक ही है।) १५५. वित्तेण ताणं ण लभे पमत्ते, इमम्मिलोए अदुआ परत्था। दीवप्पण? व अणंतमोहे नेयाउयं दद्रुमदठ्ठमेव ॥ उत्तरा०। ४.५ वित्तेन त्राणं न लभेत् प्रमत: अस्मिन् लोके अदो वा परत्र । दीपप्रणष्टे इव अनन्तमोहः नैयायिकं दृष्ट्वा अदृष्ट्वा एव । प्रमादी पुरुष इस लोक में या परलोक में धन-ऐश्वर्य आदि से संरक्षण नहीं पाता। जिसका अभ्यन्तर दीपक बुझ गया है, ऐसा अनन्त मोहवाला प्रमत्त प्राणी न्यायमार्ग को देखकर भी देख नहीं पाता है। ( अर्थात् शास्त्रों से जानकर भी जीवन में उसका अनुभव कर नहीं पाता है।) १५६. सव्वओ पमत्तस्स भयं । सवओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ॥ आचा० । ३.४.३ तु०म० आ०।८०३ सर्वत: प्रमत्तस्य भयं । सर्वतोऽप्रमत्तस्य नास्ति भयम् ॥ रत्नत्रय के प्रति सुप्त ऐसे प्रमादी के लिए सर्वत्र भय ही भय है, और अप्रमत्त के लिए कहीं भी भय नहीं है । इसका यह अर्थ भी नहीं करना चाहिए कि विना अन्तरंग लक्ष्य के केवल वाह्य क्रियाओं से सब काम चल जायेगा। साधनाधिकार ७ शल्योद्धार १५७. जो सुत्तो ववहारे, सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि । जो जग्गदि ववहारे, सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥ मो० पा० । ३१ तु० = मगवती सूत्र । १२.२.४४३ यः सुप्तो व्यवहारे, स: योगी जागति स्वकायें। यः जाति व्यवहारे, स: सुप्तो आत्मनः कायें ॥ जो व्यवहार में सोता है वह योगी निज कार्य में जागता है। और जो व्यवहार में जागता है, वह निज कार्य में सोता है। १५८. सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी, न वीससे पंडिय आसुपन्ने। घोरा मुहत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्तो।। उत्तरा०। ४.६ तु०=मो० पा० । ३२-३३ सुप्तेषु चापि प्रतिबुद्धजीवी, न विश्वसेत् पण्डित आशुप्रज्ञः। घोरा मुहूर्ता अबलं शरीरं, भारण्डपक्षीव चरेदप्रमत्तः॥ कर्तव्याकर्तव्य का शीघ्र ही निर्णय कर लेनेवाले तथा धर्म के प्रति सदा जागृत रहनेवाले पण्डित जन, आत्महित के प्रति सुप्त संसारी जीवों का कभी विश्वास नहीं करते । काल को भयंकर और शरीर को निर्बल जानकर वे सदा भेरण्ड' पक्षी की भाँति सावधान रहते हैं। ६. शल्योद्धार (हृदय में सदा शल्य को भांति चुमते रहने के कारण मायाचारिता, मिथ्यादर्शन, और निदान-ये तीन शल्य कहलाते हैं)। १५९. णिसल्लस्सेव पुणो, महब्वदाई हवंति सव्वाई। बदमुवहम्मदि तोहिं दु, णिदाणमिच्छत्तमायाहि ।। भ० आ० । १२१४ तु= महा० प्रत्या० । २४ १. भेरण्ड पक्षी के एक शरीर में दो जीव, दो ग्रीवा तथा तीन पर होते है। जब एक जीब सोता है तो दूसरा जागता है। इस प्रकार बहुत सावधानी से ये अपना जीवन निर्वाह करते हैं। इसी प्रकार साधु अन्तरंग शान के लक्ष्य में सदा जागृत रहे और कर्म के प्रति सदा अप्रमत्त होकर वरते, इस प्रकार युगपत दोनों का निर्वाह करे। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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