Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 43
________________ साधनाधिकार ७ कर्मयोग-रहस्य ३. चारित्र (कर्म) में सम्यक्त्व व ज्ञान का स्थान १४२. जदि पढदि बहुसुदाणि य, जदि काहिदि बहुविहं य चारित्तं। तं बाल सुदं चरणं, हवेइ अप्पस्स विवरीयं । मो० पा०।१०० तु. = दे० अगली गा० १४३ यदि पठति बहुश्रुतानि च, यदि करिष्यति बहुविधं च चारित्रम् । तत् बालश्रुतं चरणं, भवति आत्मनः विपरीतम् ।। ___ आत्मा से विपरीत अर्थात् आत्मा को स्पर्श किये बिना बहुत सारे शास्त्रों का पढ़ना बालथुत है और बहुत प्रकार के चारित्र का करना बाल-चरण है। १४३. चरणकरणप्पहाणा, ससमय-परसमयमुक्कवावारा। चरणकरणस्स सारं, णिच्छयसुद्धं ण याणंति ॥ सन्मति तक। ३.६७ तु० = दे० पिछली गा० १४२ चरणकरणप्रधानाः, स्वसमय-परसमयमुक्तव्यापाराः। चरण-करणस्य सारं, निश्चयशद्धं न जानन्ति । जो स्व व पर सिद्धान्त का चिन्तन छोड़ बैठे हैं, वे व्रत व नियम करते हुए भी परमार्थतः उनके फल को नहीं जानते हैं। ४. कर्मयोग-रहस्य १४४. एयं सकम्म विरियं, बालाणं तु पवेइयं । इत्तो अकम्म विरियं, पंडियाणं सुणेह मे ॥ मू०१०। ८.१.१ तु० = स० सा० । क० । २०५ एतत्सकर्मवीर्य, बालानां तु प्रवेदितम् । अतोऽकर्मवीयं पण्डितानां श्रणुत मे॥ अब तक जो कहा गया है। वह अज्ञानी जनों का सकर्म वीर्य है। अब ज्ञानी जनों का अकर्म-वीर्य कहता हूँ। तो सुनो । अर्थात् अज्ञानी जनों की क्रियाएँ सकर्म होती है और ज्ञानी जनों की अकर्म'। १. इसका सम्बन्ध सूत्रकृतांग ग्रन्थ से है, जहाँ से यह गाथा लेकर लिखी गयी है। Jain Education Interna २. शानी अकर्म के द्वारा ही कर्म खपाता है।--दे० गा० २७८ । साधनाधिकार ७ कर्मयोग-रहस्य १४५. पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं ।" तभावादेसओ वा वि, बालं पण्डियमेव वा ।। सू० कृ०॥ १.८.३ . तु० = भ० आ०। ८०३ प्रमादं कर्म आहुः, अप्रमादं तथाऽपरम् । तभावादेशतो वाऽपि, बालं पण्डितमेव वा॥ (इसका कारण यह है) कि प्रमाद' को ही कर्म कहा गया है और अप्रमाद को अकर्म । प्रमाद व अप्रमाद की अपेक्षा ही व्यक्ति को अज्ञानी व ज्ञानी कहा जाता है। १४६. जह सलिलेण ण लिप्पइ, कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ, कसायविसएहिं सप्पुरिसो।। भा० पा०।१५४ तु० = आचारांग । ४.४.७ (१४०) यथा सलिलेन न लिप्यते, कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या। तथा भावेन न लिप्यते, कषायविषयः सत्पुरुषः ।। जिस प्रकार कमलिनी का पत्ता स्वभाव से ही जल के साथ लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष कषायों व इन्द्रिय-विषयों में संलग्न होकर भी उनमें लिप्त नहीं होता। १४७. त्यक्तं येन फलं स कर्मकुरुते नेति प्रतीमो वयं, किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो, ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुस्ते कर्मेति जानाति कः ।। स० सा० । क०१५३ तु०- आचारांग ४.२.१ (१३०) जिसने कर्म-फल का त्याग कर दिया है, वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति हमें नहीं होती। परन्तु इतना विशेष है कि ऐसे ज्ञानी को भी कदाचित् किसी कारणवश कोई कर्म करना अवश्य पड़ता है। उसके १. दे० गा० १५१-१५८ For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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