Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

Previous | Next

Page 44
________________ साधनाधिकार ७ ૬૪ कर्मयोग - रहस्य आ पड़ने पर भी जो अकम्प परमज्ञान में स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं, यह कौन जानता है ? अर्थात् वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता है। (निष्काम योगी किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता' ।) १४८. न ह्यप्रमत्तसाधूनां क्रियाप्यावश्यकादिका । नियता ध्यानशुद्धत्वाद्यदन्यैरप्यदः स्मृतम् ॥ अध्या० सा० । १५.७ तु० स० सा० क० | १११ ध्यान द्वारा चित्त शुद्ध या स्थिर हो जाने के कारण अप्रमत्त साधु को पडावश्यक आदि शास्त्रोक्त क्रिया करने की कोई आवश्यकता नहीं है। गीताकार ने भी ऐसा कहा है । परन्तु -- १४९. कर्माप्याचरतो ज्ञातुर्मुक्तिभावो न हीयते । तत्र संकल्पजो बन्धो गीयते यत्परैरपि ॥ अध्या० सा० । १५.३२ तु० दे० पीछे गा० १४७ ( यद्यपि ज्ञानी को कर्म करने की आवश्यकता नहीं, परन्तु ) यदि वह शास्त्रोक्त कर्मों का आचरण करे तो भी उसके मुक्तिभाव में कोई हानि नहीं होती है। क्योंकि संकल्प ही बन्ध का कारण है, क्रिया नहीं । गीताकार ने भी यही कहा है' । १५०. कर्म नैष्कर्म्य वैषम्य - मुदासीनो विभावयन । ज्ञानी न लिप्यते भोगैः पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ अध्या० सा० । १५.३५ तु० = यो० सा० अ० । ९.५९ कर्म व अकर्म के भेद में उदासीन हो जाने के कारण अर्थात् कर्म व अकर्म में कोई भेद न देखने वाला ज्ञानी भोगों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार जल से कमल-पत्र गीला नहीं होता । Jain Education Internationa १. दे० गा० २७८ २. गीता २.२२ ३. गीता ३.९ साधनाधिकार ७ ५. अप्रमाद सूत्र १५१. कहं चरे कहं चिट्ठे, कहमा से कहं सए । कहं भुंजतो भासतो पावकम्मं न बंधइ ॥ १५२. जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुंजतो भासतो पावकम्मं न बंधइ ॥ दश० । ४.७-८ अप्रमाद-सूत्र तु० - भ० आ० १०१२ - १०१३ कथं चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासीत् कथं शयीत् । कथं भुंजानो भाषमाणः पापकर्म न बध्नाति ॥ यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत् यतं शयीत् । यतं भुंजानो भाषमाणः पापकर्म न बध्नाति ॥ ('अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति' यह साधनागत व्यवहार चारित्र का लक्षण कहा गया है। इसके विषय में ही शिष्य प्रश्न करता है ) -- कैसे चलें, कैसे बैठें, कैसे खड़े हों, कैसे सोवें, कैसे खावें और कैसे बोलें कि पापकर्म न बँधे । (गुरु उत्तर देते हैं) - यत्न से चलो, यत्न से खड़े हो, यत्न से बैठो, यत्न से सोओ, यत्न से खाओ और यत्न से बोलो। ऐसा करने से पापकर्म नहीं बंधता । For Private & Personal Use Only म० आ० १२०१ १५३. उमिणिपत्तं व जहा, उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं । तह समिदीहिं ण लिप्पइ, साधु काएसु इरियंतो ॥ तु० पीछे गा० १५२ पद्मिनी पत्रं व यथा, उदकेन न लिप्यति स्नेहगुण युक्तं । तथा सम्यग्दृष्टि न लिप्यति साधुः कायेषु ईयंन् ॥ समिति पूर्वक शरीर से सब कुछ करता हुआ भी साधु, कर्मों से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जिस प्रकार स्निग्ध गुण से युक्त होने के कारण कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता। [प्रश्न- आत्मज्ञानी सम्यग्दृष्टि को यह सब यत्नाचार आदि करने की क्या आवश्यकता है ? ] ५ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112