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चारित्राधिकार ६
परोषह-जय हआ भी उस चेष्टा का स्वामी नहीं होता है। ( ज्ञान हो जाने पर न कुछ त्याग करना शेष रहता है, न ग्रहण' । ) १३४. उवभोगमिदियेहि, दव्वाणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ।।
स० सा० । १९३ उपभोगमिन्द्रियः द्रव्याणामचेतनानामितरेषां । यत्करोति सम्यग्दृष्टिः तत्सर्व निर्जरानिमित्तं ॥
सम्यग्दृष्टि की हो यह कोई अकथनीय महिमा है, कि जो जो भी चेतन या अचेतन द्रव्य वह अपनी इन्द्रियों के द्वारा भोगता है, वह वह उसके लिए बन्धनकारी न होकर निर्जरा का निमित्त हो जाता है। ८. परीषह-जय (तितिक्षा सूत्र) १३५. सहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स ।
उच्छेलणापहोअस्स, दुल्लहा सु गई तारिसगस्स ।। दशव० । ४.२६
तु०= मो० पा०। ६२ सुखस्वादकस्य श्रमणस्य, साताकुलस्य निकामशायिनः । उत्क्षालनाप्रधाविनः, दुर्लभा सुगतिस्तादृशस्य ॥
जो श्रमण केवल अपने शरीर के सुखों का ही स्वादिया है, और उन सुखों के लिए सदा आकुल-व्याकुल रहता है, खूब खा पीकर सो जाता है और सदा हाथ-पाँव आदि धोने में ही लगा रहता है, उसे सुति दुर्लभ है। १३६. एवं सेहे वि अपुठे, भिक्खायरियाअकोविए।
सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव लूहं न सेवए । सू००।३.१.३
तु० =अनगार धर्मामृत । ६.८३ एवं शिष्योऽप्यस्पृष्टो, भिक्षाचर्याऽको विदः । शूरं मन्यत आत्मानं, यावत् रूक्षं न सेवते ॥
चारित्राधिकार ६
परोषह-जय नवदीक्षित साधु उसी समय तक शूरवीर है, जब तक संयम अंगीकार करके वह भिक्षाचर्या, रूखा-सूखा नीरस आहार व पीड़ाओं का स्पर्श नहीं कर लेता। १३७. सो वि परीसहविजओ, छुहाइ-पीडाण-अइ-रउद्दाणं।
सवणाणं च मुणीणं, उवसमभावेण जं सहणं ।। का० अ०। ९८
तु० - उत्तरा० । १५.४ स अपि परीषहविजयः, क्षुधादिपीडानाम् अतिरौद्राणाम् । श्रमणानां च मुनीना, उपसमभावेन यत् सहनम् ॥
अत्यन्त दारुण क्षुधा आदि की वेदना को जो ज्ञानी मुनि शान्त भाव से सहन करता है, उसे परीषहजय कहते हैं। १३८. तहागहं भिक्खु मणंत संजय,अणोलिसं विन्नु चरंतमेसणं ।
तुदंति वायाहि आभद्दयं णरा, सरेहि संगामगयं व कुंजरं । आचा० । २५.२
तु० - मू० आ० । ९९७ (८.१०२) तथागतं भिक्षुमनन्तसंयतं, अनीदशं विज्ञः चरंतमेषणाम् । तदन्ति वाग्भिः अभिद्रवन्तो नराः, शरैः संग्रामगतमिव कुंजरम् ।।
जीवदया व विरागपरायण ज्ञानी भिक्षु को चर्या के समय जब ये लोग विविध प्रकार से, मर्मभेदी वाग्वाणों के द्वारा अथवा मुक्का व लाठी आदि के प्रहारों के द्वारा पीड़ा देते हैं, तो वह उसे उसी प्रकार सहन कर जाय, जिस प्रकार संग्राम में हाथी।
. गा०२८०।
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