Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 34
________________ * ज्ञानाधिकार ५ ९. अध्यात्मज्ञान - चिन्तनिका ९८. दर्शन विशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वन तिचारोभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ, शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिर्आवश्यक परिहाणिर्मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थरत्वस्य ॥ Jain Education Intern १.० दे० गा० १७९ अध्यात्मज्ञान- चिन्तनिका त० सू० । ६.२४ तु ज्ञा० घ० । १.८.१९ सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनय सम्पन्नता, अहिंसा आदि व्रतों का तथा उनके रक्षक शीलों का निरतिचार पालन, सतत ज्ञान-ध्यान में लीन रहना, धार्मिक कर्मों में उत्साह व हर्ष, यथाशक्ति त्याग व तप करते रहना, साधु-समाधि अर्थात् अन्त समय समतापूर्वक देह का त्याग करना, गुरुजनों की सेवा, अर्हन्त आचार्य उपाध्याय व शास्त्र की भक्ति, वन्दना, सामायिक, स्तुति, दोषों का प्रायश्चित्त आदि-आवश्यक क्रियाओं में कभी प्रमाद न करना, धर्म-मार्ग की जगत् में प्रभावना करते रहना तथा गुणीजनों में वात्सल्य व प्रमोद भाव का होना। ये सोलह प्रसिद्ध भावनाएँ हैं, जिनके निरन्तर भाते रहने से तीर्थंकर होने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। ९९. समण सावएण य, जाओ णिच्वंपि भावणिज्जाओ । दढसंवेगकरीओ, विसेसओ उत्तमट्ठम्मि ॥ मरण समा० । ५७१ तु०पं० वि० । ६.४२ श्रमणेन श्रावकेन च, या नित्यमपि भावनीयाः । दृढसंवेगकारिण्यो, विशेषतः उत्तमार्थे ॥ श्रमण को या श्रावक को संवेग व वैराग्य के दृढीकरणार्थ नित्य ही, विशेषतः सल्लेखना के काल में इन १२ भावनाओं का चितवन करते रहना चाहिए । २. ३० अ० १० । ज्ञानाधिकार ५ ४५ १००. अधुवमसरण मेगत्त-मण्णत्तसंसारलोय मसुइत्तं । आसव संवर णिज्जर, धम्मं बोधि च चितिज्ज || भ० आ० | १७१५ अध्यात्मज्ञान- चिन्तनिका तु० मरण समा० । ५७२-७३ अध्रुवशरणमेकत्वमन्यत्वसंसारलोकमशुचित्वं । आस्रवसंवरनिर्जर, धर्मं बोधि च चिन्त्येत् ॥ अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ, इन १२ भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए । (क) अनित्य व अशरण संसार १०१. अम्भोबुद्बुदसंनिभा तनुरियं, श्रीरिन्द्रजालोपमा । दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः कान्तार्थपुत्रादयः ॥ For Private & Personal Use Only १०२. सौख्यं वैषयिकं सदैव तरलं, मत्तांगनापाङ्गवत् । तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये, शोकेन किं किं मुदा ॥ तु० == उत्तरा० । १८.१३ पं० वि० । ३.४ यह शरीर जलबुद्बुद के समान अनित्य है तथा लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान चंचल । स्त्री, धन व पुत्रादि आँधी से आहत जल-प्रवाहवत् अति वेग से नाश की ओर दौड़े जा रहे हैं। वैषयिक सुख काम से मत्त स्त्री की भाँति तरल हैं अर्थात् विश्वास के योग्य नहीं हैं। इसलिए समस्त उपद्रवों के स्थानभूत इनके विषय में शोक करने से क्या लाभ है ? और इनकी प्राप्ति होने पर मोद कैसा ? १०३. जम्मजरामरणभए अभिदुए, विविहवा हिसंतत्ते । लोगम्मि नत्थि सरणं, जिणिदवरसासणं मुत्तुं ॥ मरण समा० । ५७८ ०वा० अ० । ११ जन्मजरामरणभयैरभिद्रुते, विविधव्याधिसंतप्ते | लोके नास्ति शरणं जिनेन्द्रवरशासनं मुक्त्वा ॥ www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112