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ज्ञानाधिकार ५
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अध्यात्मज्ञान के लिंग
ज्ञानाधिकार ५
स्वानुभव ज्ञान यथा यथा बहुश्रुतः सम्मतश्च, शिष्यगणसंपरिक्तश्च । अविनिश्चितस्य समये, तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः॥
शाब्दिक जगत् में विचरण करनेवाला वह आचार्य ज्यों-ज्यों बहुथत माना जाता है, और शिष्य-समूह से घिरता जाता है, त्यों-त्यों ( पक्षपात से विषाक्त ज्ञानाभिमान के कारण ) वह सर्वजीवहितैषी सिद्धान्त का शत्रु बनता जाता है।
७. स्वानुभव ज्ञान ९३. अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना ।
शास्त्रयुक्तिशतेनापि, नैव गम्यं कदाचन ॥ अध्या० उप० । २.२१
तु==तत्त्वानुशासन । १६६-१६७ शास्त्रगत सैकड़ों युक्तियों के द्वारा भी ( मन वाणी से अतीत'). वह परब्रह्मस्वरूप अतीन्द्रिय तत्व, विशुद्ध अनुभव के बिना कभी जाना नहीं जा सकता। ९४. भूतं भान्तमभूतमेव रभसा निभिद्य बन्धं सुधी,
यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं, नित्यं कर्मकलंकपंकविकलो देव: स्वयं शाश्वतः ।।
स० सा० । क० । १२ यदि कोई सबुद्धि जीव भूत वर्तमान व भावी कमों के बन्ध को अपने आत्मा से तत्काल भिन्न करके तथा तज्जनित मिथ्यात्व को बलपूर्वक रोककर अन्तरंग में अभ्यास करे तो स्वानुभवगम्य महिमावाला यह आत्मा व्यक्त, निश्चल, शाश्वत, नित्य, निरंजन तथा स्वयं स्तुति करने योग्य परम देव, यह देखो, यहाँ विराजमान
८. अध्यात्मज्ञान के लिंग ९५. णासीले ण विसीले, न सिया अइलोलुए।
अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीले त्ति बुच्चई ॥ उत्तरा० । ११.५
तु०=० आ० । २६७-२६८ (५.१०५) नाशील: न विशीलो, न स्यादतिलोलुपः।
अक्रोधनः सत्यरतः, शिक्षाशील इत्युच्यते ॥ अशील न हो अर्थात् सुशील हो, बार-बार आचार को बदलनेवाला विशील न हो, रसलोलुप तथा कोधी न हो, सत्यपरायण हो। इन गुणों से व्यक्ति शिक्षाशील कहलाता है। ९६. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि ।
जेण मेत्ती पभावेज्ज, तं गाणं जिणसासणे ।। मू० आ० । २६८ ( ५.८६ )
तु० = दे० अगली गा० ९७ येन रागाद्विरज्यते येन श्रेयसि रज्यते।
येन मैत्री प्रभावयेत् तज्ज्ञानं जिनशासने ॥ जिसके द्वारा व्यक्ति राग से विरक्त हो, जिसके द्वारा वह श्रेयमार्ग में रत हो, जिसके द्वारा सर्व प्राणियों में मंत्री वर्ते, वही जिनमत में ज्ञान कहा गया है। ९७. विषमेऽपि समक्षी यः, स ज्ञानी स च पण्डितः ।
जीवन्मुक्तः स्थिरं ब्रह्म, तथा चोक्तं परैरपि ॥ अध्या० सा० । १५.४२
तु०-दे० पिछली गा०९६ विषम में भी जो सम देखता है, बही ज्ञानी और बही पण्डित है। वहीं ब्रह्म में स्थित जीवन्मुक्त है। (गीताकार ने भी ऐसा ही कहा है।)
१.दे० गा०३७१-३७२ । Jain Education International
१. गी०।५-१८
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