Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 38
________________ चारित्राधिकार ६ ५२ महारोग रागद्वेष १. निश्चय-चारित्र (समत्व) ११६. समदा तह मज्झत्थं, सुद्धो भावो य वीयरायत्तं । तह चारित्तं धम्मो, सहाव आराहणा भणिया ॥ न००। ३५६ समता तथा माध्यस्थ्यं, शुद्धो भावश्च वीतरागत्वम् । तथा चारित्रं धर्मः स्वभावाराधना भणिता ॥ समता, माध्यस्थता, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र', धर्म, स्वभाव की आराधना ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। ११७. चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समोत्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥ प्र० सा०।७ तु० = सू० कृ०। ६. १.४ चारित्रं खलु धर्मो, धर्मो यस्तत्साम्यमिति निद्दिष्टम् । मोहक्षोभविहीनः परिणामः आत्मनो हि साम्यम् ॥ परमार्थतः चारित्र ही धर्म (आत्म-स्वभाव) है। धर्म साम्यस्वरूप कहा गया है, और आत्मा का मोह क्षोभ-विहीन परिणाम ही साम्य है, ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। [यह निश्चय-चारित्र का अधिकार है। इसके साधनभूत व्यवहार-बारित्र का कथन संयम अधिकार (८) में किया गया है। २. महारोग रागद्वेष ११८. णवितं कुणइ अमित्तो,सुठु विय विराहिओ समत्थोवि। जं दोवि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥ मरण समा० । १९८ तु०-५० । पृ० ४३ नैव तत्करोति अमित्रः, सुष्ठ्वपि विराद्धः समर्थोऽपि । यद् द्वावपि अनिगृहीतो, कुरुतो रागश्च द्वेषश्च ।। चारित्राधिकार ६ रागद्वेष का प्रतिकार सम्यक् प्रकार से निग्रह न किये गये राग और द्वेष ये दोनों व्यक्ति का जितना अनिष्ट करते हैं, उतना कोई अत्यन्त कुशल शत्रु भी नहीं करता है, भले वह कितना ही क्रुद्ध व समर्थ हो। ११९. व्याप्नोति महती भूमि, वटबीजाद्यथा वटः। तथैकममताबीजात्प्रपंचस्यापि कल्पना ।। अध्या० सा०। ८.६ तु-आ० अनु० । १८२ जिस प्रकार वट-बीज से उत्पन्न वट वृक्ष लम्बी-चौड़ी भूमि को घेर लेता है, उसी प्रकार ममतारूप बीज से उत्पन्न प्रपंच की भी कल्पना कर लेनी चाहिए। १२०. परमाणु मित्तयं पि हु, रागादीणं तु विज्जदे जस्स । - णवि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि ॥ स० सा०।२०१ तु०= मरण समा०। ४०७ परमाणुमात्रमपि खलु, रागादीनां तु विद्यते यस्य । नापि स जानात्यात्मानं, सर्वागमधरोऽपि ॥ जिस व्यक्ति के हृदय में परमाणु मात्र भी राग व द्वेष का वास है, वह सर्व शास्त्रों का ज्ञाता भी क्यों न हो, आत्मा को नहीं जानता है। ३. रागद्वेष का प्रतिकार १२१. रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात्, तौ वस्तुत्वप्रणिहितदृशा दृश्यमानौ न किंचित् । सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुटतो, ज्ञानज्योतिर्वलति सहजं येन पूर्णाचलाच्चिः ।। स० सा० । क० २१७ तु०=मरण समा० । ३० ___तात्त्विक दृष्टि से देखने पर राग और द्वेप स्वतंत्र सत्ताधारी कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अज्ञानरूपण परिणमन हो जाना ही उनका स्वरूप है। अतः सम्यग्दृष्टि तत्त्वदृष्टि के द्वारा इन्हें नष्ट कर दे, १. इष्टानिष्टता काल्पनिक है, वस्तुभूत नहीं-दे० गा० १२९ । १. रागादि का परिहार ही चारित्र है-दे० गा० २२ । २. वस्तु का खभाव धर्म है-दे० गा० २४२ । Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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