Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 35
________________ ज्ञानाधिकार ५ ४६ अध्यात्मज्ञान- चिन्तनिका जन्म, जरा व मरण के भय से पूर्ण तथा विविध व्याधियों से संतप्त इस लोक में जिनशासन को छोड़कर ( अथवा आत्मा को छोड़कर ) अन्य कोई शरण नहीं है । १०४. संगं परिजाणामि सल्लंपि, य उद्धरामि तिविहेणं । गुत्तीओ समिईओ, मज्झं ताणं च सरणं च ॥ मरण समा० । २६७ संगं परिजानामि शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन । गुप्तयः समितयः, त्राणं शरणं च ॥ मम तु०का० अ० । ३० धन कुटुम्ब आदि रूप संसर्गों को अशरणता को में अच्छी तरह जानता हूँ, तथा माया मिथ्या व निदान ( कामना ) इन तीन मानसिक शल्यों का मन वचन काय से त्याग करता हूँ। तीन गुप्ति व पाँच समिति' ही मेरे रक्षक व शरण हैं। इस मोक्ष मार्ग को न जानने के कारण ही में अनादि काल से इस संसार सागर में भटक रहा हूँ। एक बालाग्र प्रमाण भी क्षेत्र ऐसा नहीं, जहाँ अनन्त बार जन्म-मरण न हुआ हो ।" ( ख ) आत्मा का एकत्व व अनन्यत्व १०५. एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥ आतुर० प्र० । २६ मा०पा० ॥ ५९ एको मे शाश्वतः आत्मा, ज्ञानदर्शनसंयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ आत्मा ही मेरी है, जगत् ज्ञान दर्शन युक्त अकेली यह शाश्वत के अन्य सर्व वाह्याभ्यन्तर पदार्थ व भाव संयोगज हैं और इसलिए मेरे स्वरूप से बाह्य हैं। Jain Education Intemna १. दे० गा० १९१-१९२ । २. दे० गा० ६-७ । ज्ञानाधिकार ५ ४७ १०६. संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्ख परंपरा । तम्हा संजोग संबंध, सव्वभावेण वोसिरे ॥ आतुर० प्र० । २७ संयोगमूला जीवेन प्राप्ता दुःखपरम्परा । तस्मात्संयोगसम्बन्धं सर्वभावेन व्युत्सृजामि || आत्मस्वरूप से बाह्य संयोगमूलक ये सभी बाह्याभ्यन्तर पदार्थ, जीव के द्वारा प्राप्त कर लिये जाने पर क्योंकि उसके लिए दुःख परम्परा के हेतु हो जाते हैं, इसलिए सभी प्रकार के शारीरिक व मानसिक संयोग सम्बन्धों को में मन वचन काय से छोड़ता हूँ । १०७. अन्नं इमं सरीरं, अण्णो जीवुत्ति निच्छयमइओ । दुक्खपरिकेसकर, छिंदममत्तं सरीराओ ॥ मरण समा० । ४०२ तु० मू० आ० । ७०२ ( ९.१२ ) अन्यदिदं शरीरं अन्यो जीव इति निश्चितमतिकः । दुःखपरिक्लेशकरं छिन्द्धि ममत्वं शरीरात् ॥ 'यह जीव अन्य है और शरीर इससे अन्य है, इस प्रकार की निश्चित बुद्धिवाला व्यक्ति, शरीर को दुःख तथा क्लेश का कारण जानकर उस का ममत्व छोड़ देता है । (ग) देह-दोष दर्शन १०८. जावइयं किचि दुहं, सारीरं माणसं च संसारे । पत्ता अणंतखुत्तो, कायस्स ममत्तदोसेणं ।। मरण समा० । ४०३ अध्यात्म ज्ञान-चिन्तनिका तु०ज्ञा० । २.६ । १०-११ यावत्कचिदुक्खं शारीरं मानसं च संसारे । प्राप्तोऽनन्तकृत्वः कायस्य ममत्वदोषेण ॥ इस संसार में शारीरिक व मानसिक जितने भी दुःख हैं, वे सत्र शरीर - ममत्वरूपी दोष के कारण ही प्राप्त होते हैं । ( इसलिए मैं इस ममत्व का त्याग करता हूँ । ) १०९. मंसट्टियसंघाए, मुत्तपुरीस भरिए नवच्छिद्दे । असुइ परिस्सवंते, सुहं सरीरम्मि कि अत्थि || मरण समा० । ६०८ For Private & Personal Use Only तु०=बा० अ० । ४४ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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