Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 31
________________ शानाधिकार ५ निश्चय ज्ञान ८२. जो एगं जाणइ, सो सव्वं जाणइ । जो सव्वं जाणइ, सो एगं जाणइ । आचा। ३.४.२ तु०-दे० अगली गा०८३ यः एकं जानाति, सः सर्व जानाति । यः सर्व जानाति, स: एक जानाति ॥ जो एक को जानता है वह सबको जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है । ८३. एको भावः सर्वभावस्वभावः, सर्वेभावाः एकभावस्वभावाः । एकोभावस्तत्त्वतो येन बुद्धः, सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः ।। नय चक्र गद्य । ३-६८ में उद्धृत तु० = दे० पिछली गा० ८२ (द्रव्य के परिवर्तनशील कार्य 'पर्याय' कहलाते हैं।) जिस प्रकार 'मृत्तिका' घट, शराब व रामपात्रादि अपनी विविध पर्यायों या कार्यों के रूप ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं, इसी प्रकार जीव, पुद्गल आदि प्रत्येक द्रव्य अपनी-अपनी त्रिकालगत पर्यायों का पिण्ड ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं। जिस प्रकार घट, शराब आदि उत्पन्न ध्वंसी विविध कार्य तत्त्वत: उनमें अनुगत एक मृत्तिकारूप ही है, अन्य कुछ नहीं, उसी प्रकार उत्पन्न ध्वंसी समस्त दृष्ट पर्याय या कार्य भूत पदार्थ तत्त्वत: उनमें अनुगत कोई एक मूल द्रव्यरूप ही है, अन्य कुछ नहीं। जिस प्रकार एक मत्तिका को तत्त्वत: जान लेने पर उसकी समस्त पर्याय या घट, शराब आदि कार्य भी जान लिये जाते हैं, उसी प्रकार किसी भी एक मूलभूत दुव्य को तत्त्वतः जान लेने पर उसकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्याय या कार्य भी जान लिये जाते हैं। ज्ञानाधिकार ५ ३९ व्यवहार ज्ञान ३. जगत्-मिथ्यात्व दर्शन ८४. जे पज्जयेसु णिरदा, जीवा परसमयिग त्ति णिद्दिट्ठा । आदसहावम्मि ट्ठिदा, ते सगस मया मुणेदव्वा । प्र० सा०।९४ तु० अध्या० उप० । २.२६ ये पर्यायेषु निरता जीवाः, परसमयिका इति निर्दिष्टाः। आत्मस्वभावे स्थितास्ते, स्वकसमया मन्तव्याः॥ पर्यायों में रत जीव परसमय' अर्थात् मिथ्यादृष्टि कहे गये है और आत्मस्वभाव में स्थित स्व-समय अर्थात् सम्यग्दृष्टि जानने योग्य हैं। ८५. यथा स्वप्नोऽवबुद्धोऽर्थो, विबुद्धेन न दृश्यते । व्यवहारमतः सर्गो, ज्ञानिना न तथेक्ष्यते ।। अध्या० सा० । १८.२८ तु०=गा० २९ ( स० सा० । ११) जिस प्रकार स्वप्न में देखे गये पदार्थ जागृत व्यक्ति को दिखाई नहीं देते हैं, उसी प्रकार व्यवहार बुद्धि से देखे गये जगत् की इच्छा ज्ञानी को नहीं होती। [व्यवहारनय अभूतार्थ है और निश्चय नय भूतार्थ । निश्चय दृष्टि के आश्रय से ही जीव सम्यग्दृष्टि होता है।'] ४. व्यवहार ज्ञान ( शास्त्रज्ञान) ८६. सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरंमि पडिआवि । जीवोऽवि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओवि संसारे ।। भक्त० परि०।८६ तु०=-सूत्रपाहुड। ३-४ सूची यथा ससूत्रा न नश्यति कचवरे पतिताऽपि । जीवोऽपि तथा ससूत्रो, न नश्यति गतोऽपि संसारे। २. जैन दर्शन अनेक सत्तावादी है। १. दे० गा० ३६१ । ३. दे० गा० ३६४। Jain Education International १. उत्पन्न ध्वंसी कार्य-दे० गा० ३६१। २. मिध्यादृष्टि । ३. जगत् के समस्त पदार्थ उत्पन्न ध्वंसी पर्याय स्वरूप होने के कारण खप्नतुल्य तथा व्यावहारिक हैं । परमार्थ तत्त्व तो इनमें अनुगत हैं। देगा० ३६५। ४. देगा० २१ । For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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