Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 28
________________ सम्य अघि०४ प्रभावनाकरणत्व सम्य० अधि०४ वात्सल्यत्व यत्रैव पश्येत् क्वचित् दुष्प्रयुक्तं, कायेन वाचाऽथवा मानसेन । १३. प्रशम भाव ( चित्त-प्रसाद ) तत्रैव धीरः प्रतिसंहरेत्, आकीर्णः क्षिप्रमिव खलि नम् ॥ ७२. चत्तारि कसाए तिन्नि गारवे पंचइंदियग्गामे । जिस प्रकार जातिवान् घोड़ा लगाम का संकेत पाते ही विपरीत जिणिउं परीसहसहेऽविय हराहि आराहणपडागं । मार्ग को छोड़कर सीधे मार्ग पर चलने लगता है, उसी प्रकार धैर्यवान् ७३. मित्तसुयबंधवाइसु इट्टाणिठेसु इंदियत्थेसु । साधु जब कभी अपने मन वचन काय को असद् मार्ग पर जाता हुआ देखता है, तो तत्काल ही वह उनको वहाँ से खींचकर सन्मार्ग में रागो वा दोसो वा ईसि मणेणं ण कायब्वो॥ मरण समा०।३१४, ४०७ तु०-मू० आ० । (८०११४-११७) प्रतिष्ठित कर देता है। चतुरः कषायान त्रीणि गौरवानि पंचेन्द्रियग्रामान् । जित्वा परीषहानपि च हराराधनापताकाम् ।। १२. वात्सल्यत्व ( प्रेमयोग) मित्रसुतबान्धवादिषु इष्टानिष्टेष्विन्द्रियार्थेषु । ७०. जो धम्मिएस भत्तो, अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए। रागो वा द्वषो वा ईषदपि मनसा न कर्त्तव्यः॥ पिय वयणं जंपतो, वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ।। क्रोधादि चार कषायों को, रस ऋद्धि व सुख इन तीन गारवों को, पाँचों इन्द्रियों को तथा अनुकूल व प्रतिकूल विघ्नों को व संकटों का० अ०।४२१ यःधामिकेषु भक्तः, अनुचरणं करोति परमश्रद्धया। को जीतकर, साथ ही आराधनारूपी पताका को हाथ में लेकर, मित्र प्रियवचनं जल्पन, वात्सल्यं तस्य पुत्र व बन्धु आदि में तथा इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयों में किंचिन्मात्र भी भव्यस्य । राग-द्वेष करना कर्तव्य नहीं है। जो सम्यग्दृष्टि जीव प्रिय वचन बोलता हुआ अत्यन्त श्रद्धा से धर्मी जनों में प्रमोदपूर्ण भक्ति रखता है, तथा उनके अनुसार आचरण १४. आस्तिक्य भाव करता है, उस भव्य जीव के वात्सल्य गुण कहा गया है। ७४. अर्थोऽयमपरोऽनर्थ, इति निर्धारणं हृदि । ७१. सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । आस्तिक्यं परमं चिह्न, सम्यक्त्वस्य जगुजिनाः ।। अध्या० सा० । १२.५७ तु-पं० घ० । उं० । ४५२ माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।। 'यह अर्थ है और यह अनर्थ है', हृदय में इस प्रकार दृढ़ निर्धारण सामा० पाठ। १ करना, सम्यग्दर्शन का आस्तिक्य नामक परम चिह्न है। सब जीवों में मेरी मैत्री हो, गुणीजनों में प्रमोद हो, दुःखी जीवों के प्रति दया हो और धर्म-विमुख विपरीत वृत्तिवालों में माध्यस्थ १५. प्रभावनाकरणत्व भाव । हे प्रभो ! मेरी आत्मा सदा (प्रेम व वात्सल्य के अंगभूत ) ७५ धम्मकहाकहणेण य, बाहिरजोगेहिं चावि णवज्जेहि। इन चारों भावों को धारण करे। धम्मो पहाविदव्वो, जीवेसु दयाणुकंपाए। मू० आ० । २६४ ( ५.८२) ___ Jan Education inst: गुरु विनय का महत्त्व-दे० गा० २१७ ॥ For Private & Personal use only. ३ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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