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समन्वय अधि०३
ज्ञान-कर्म समन्वय ३५. जह वि णिरुद्धं असुहं सुहेण, सुहमवि तहेव सुद्धेण ।
तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णिय आदं ॥ न० प० । ३४७
तु-दे० गा० ३४ यथैव निरुद्धं अशुभं शुभेन, शुभमपि तथैव शुद्धेन। तस्मादनेन क्रमेण च योगी, ध्यायतु निजात्मानम् ॥
प्रारंभ में जिस प्रकार व्यवहारभूत शुभ प्रवृत्तियों के द्वारा अशुभ संस्कारों का निरोध हो जाता है, उसी प्रकार चित्त-शुद्धि हो जाने पर शुद्धोपयोग रूप समता के द्वारा उन शुभ संस्कारों का भी निरोध हो जाता है। इस क्रम से योगी धीरे-धीरे आरोहण करता हुआ निजात्मा को ध्याने में सफल हो जाता है । ३६. आलोयणादिकिरिया, जं विसकुंभेत्ति सुद्धचरियस्स ।
भणियमिह समयसारे, तं जाण सुएण अत्थेण ।। न० च० । ३४५
तु०=अध्या० सा० । १५.५० आलोचनादिक्रियाः, यद्विषकुम्भ इति शुद्धचरितस्य । भणितमिह समयसारे, तज्जानीहि श्रुतेणार्थेन ॥
आलोचना, प्रतिक्रमण आदि व्यावहारिक क्रियाओं को समयसार ( ग्रन्थ की गा० ३०६ ) में शुद्ध चारित्रवान् के लिए विषकुम्भ कहा है। उसे राग की अपेक्षा ही विष-कुम्भ कहा है, ऐसा भावार्थ भी शास्त्र से जान लेना चाहिए। ३. ज्ञान-कर्म समन्वय ३७. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया ।
पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ। वि. आ. भा०। ११५९
तु०रा० वा० । १.१.४९ १. व्यावहारिक साधना के उपयुक्त क्रम से भारोहण करता हुआ साधक धीरे-धीरे समता मयी उस उन्नत भूमि को प्राप्त हो जाता है, जहाँ न उसके लिए कुछ त्याज्य रहता है न पाहा । व्यावहारिक क्रियाओं के सर्व विकल्प उसे विधकुम्भवत् प्रतीत होने लगते है। और यही है निश्चय चारित्ररूप साध्य भूमि की साक्षात् प्राप्ति ।
समन्वय अधि०३
ज्ञान-कर्म समन्वय हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हताऽज्ञानतः क्रिया। पश्यन् पंगुर्दग्धो, धावमानश्चान्धकः॥
क्रिया-विहीन ज्ञान भी नष्ट है और ज्ञान-विहीन क्रिया भी। नगर में आग लगने पर, पंगु तो देखता-देखता जल गया और अन्धा दौड़ता-दौड़ता। ३८. संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ।
___ अंधोय पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ।। वि० आ० भा० । ११६५
तु०रा० वा० । १.१.४९ संयोगसिद्धौ फलं वदन्ति, न खल्वेकचक्रेण रथःप्रयाति । अन्धश्च पंगुश्च वने समेत्य, तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ॥
संयोग सिद्ध हो जाने पर ही फल प्राप्त होते हैं। एक चक्र से कभी रथ नहीं चलता। न दिखने के कारण तो अन्धा और न चलने के कारण पंगु दोनों ही उस समय तक वन से बाहर निकल नहीं पाये, जब तक कि परस्पर मिलकर पंगु अन्धे के कन्धे पर नहीं बैठ गया। पंगु ने मार्ग बताया और अन्धा चला। इस प्रकार दोनों वन से निकलकर नगर में प्रविष्ट हो गये। ( अन्तस्तल विशुद्धात्मा और बहिस्तत्त्व दया आदि धर्म, दोनों के मिलने पर ही मोक्ष होता है।) ३९. भावस्य सिद्धयसिद्धिभ्यां, यच्चाकिञ्चित्करी क्रिया।
ज्ञानमेव क्रियायुक्त, राजयोगस्तदिष्यताम् ।। अध्या० उप० । ३.१०
तु०= पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय । २१६ भाव-जगत् की साधना में यद्यपि क्रिया को अकिचित्कर कहा गया है, परन्तु वहाँ भी सर्वथा क्रिया न होती हो ऐसा नहीं है, क्योंकि कियागुक्त ज्ञान को ही राजयोग नाम में अभिहित किया जाता है।
१. अद्धा या रुचि के विना कोरा ज्ञान अधवा संयम के बिना कोरी अद्धा मोक्ष के हेतु नहीं हो सकते हैं (दे० गा० २५)।
२. दे० गा० २४३ । For Private & Personal use only . ३० गा० ३६ व १४७।
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