Book Title: Jain Dharma Sar
Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 22
________________ सम्यग्दर्शन अधिकार (जागृति योग) तत्त्वार्थ दर्शन का ही यह कोई अचिन्त्य प्रभाव है कि व्यक्ति निर्भय एवं निष्काम हो जाता है। उसका मिथ्या अहंकार गल जाता है और उसका निर्मल हृदय प्रशम, वैराग्य, अनुकम्पा एवं वात्सल्य आदि पवित्र भावों से छलक उठता है। समन्वय अधि०३ परम्परा-मुक्ति ४. परम्परा-मुक्ति ४०. विगिच कम्मुणो हेर्छ, जसं संचिणु खंतिए । पाढवं सरोरं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई दिसं ॥ ४१. भोच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूवे अहाउयं । पुव्वं विसुद्ध सद्धम्मे, केवलं बोहि बुज्झिया ।। ४२. चउरंगं दुल्लहं णच्चा, संजमं पडिवज्जिया। तवसा धुयकम्मसे, सिद्धे हवइ सासए॥ उत्तरा० ॥३॥१३, १९, २० तु० = भ० आ०।११४२-४५ विविग्धि कर्मणो हेतुं, यशः संचिनु क्षान्त्या। पार्थिव शरीरं हित्वा, ऊर्जा प्रकामति विशम् ।। भुक्त्वा मानुष्कान्भोगान्, अप्रतिरूपाण्यथायुषम् । पूर्व विशुद्धसद्धर्मा, केवलं बोधि बुद्धवा ।। चतुरंगं दुर्लभं ज्ञात्वा, संयम प्रतिपद्य । तपसाधूतकांशः, सिद्धो भवति शाश्वतः॥ धर्म-विरोधी कर्मों के हेतु ( मिथ्यात्व, अविरति ) आदि को दूर करके धर्म का आचरण करो और संयमरूपी यश को बढ़ाओ। ऐसा करने से इस पार्थिव शरीर को छोड़कर साधक देवलोक को प्राप्त होता है। ( काल पूर्ण होने पर वहां से चलकर मनुष्य गति में किसी उत्तम कुल में जन्म लेता है।) वहाँ वह मनुष्योचित सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सुखों को भोगकर पूर्वभावित धर्म के प्रभाव से सहज विशुद्ध बोधि को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य-जन्म, धर्म-श्रवण, श्रद्धा व संयम इन चार बातों को उत्तरोत्तर दुर्लभ जानकर वह संयम धारण करता है, तप से कर्मों का क्षय करता है, और इस प्रकार शनैः-शनैः शाश्वत गति को प्राप्त करने में सफल हो जाता है। १. और भी दे० गा० २६५ । Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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