Book Title: Jain Dharma Sar Author(s): Sarva Seva Sangh Prakashan Rajghat Varanasi Publisher: Sarva Seva Sangh PrakashanPage 17
________________ :२: रत्नत्रय अधिकार ( विवेक योग) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र ही मोक्ष मार्ग है और यही परमार्थ योग है। परमार्थतः तीनों एक आत्मा ही है, अथवा परस्पर पूरक होने के कारण एक हैं। समझाने मात्र के लिए विश्लेषण पद्धति द्वारा इसे त्रिधा विभक्त रूप में दर्शाया गया है। रत्नत्रय अधि०२ अमेव रत्नत्रय-आत्मा १. सम्यक् योग-रत्नत्रय १९. मणसा वाया कायण वा वि जुत्तस्स वीरियपरिणामो। जीवस्स-प्पणिजोगो, जोगो त्ति जिणेहिं णिहिट्ठो॥ पं० सं० । १.८८ मनसा वचसा कायेन, वापि युक्तस्य वीर्य-परिणामः। जीवस्य प्रणियोगः, योग इति जिननिर्दिष्टः॥ मन वचन व काय से युक्त जीव का वीर्य-परिणाम रूप प्रणियोग, 'योग' कहलाता है। ( अर्थात् जीव का मानसिक, वाचिक व कायिक हर प्रकार का प्रयत्न या पुरुषार्थ योग शब्द का वाच्य है।) २०. चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो, योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः॥ यो० शा० । १.१५ तु०-५० प्र०।२.३ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष--इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष पुरुषार्थ ही प्रधान है। योग उसका कारण है। ज्ञान, श्रद्धान व चारित्ररूप रत्नत्रय उसका स्वरूप है। २. अभेद रत्नत्रय-आत्मा २१. जो चरदि णादि पेच्छदि, अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं । सो चारित्तं गाणं, दंसणमिदि णिच्छिदो होदि ।। पं० का । १६२ तु० =ज्ञा० सा० । १३.३ यश्चरति जानाति पश्यति, आत्मानमात्मनानन्यमयं । स चारित्रं ज्ञानं, दर्शन मिति निश्चितो भवति॥ जो आत्मा अनन्यस्वरूप निजात्मा को, आत्मा के द्वारा ही आचरता है, जानता है तथा देखता है, ( इस हेतु से ) वह आत्मा ही स्वयं ज्ञान, दर्शन व चारित्र सव-कुछ है। Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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