Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi

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Page 17
________________ विवाहको अनन्तानुवन्धीके उदयसे मानना और उससे सम्य. पत्व नाश की बात कहना बिलकुल मिथ्या है। आक्षेप (आ)-परस्त्री सेवन सप्त व्यसनों में है। सभ्यक्वी सप्त व्यसन सेबी नहीं होता। विधवाविवाह परस्त्रीसेवन है। इसलिये त्रिकालमें सम्यक्त्वोके नहीं हो सकता। समाधान--परस्त्री-सेवन व्यसनों में शामिल जरूर है, परन्तु परस्त्री सेवी होने से ही कोर्ड परस्त्री व्यसनी नहीं हो जाता। परस्त्री सेवन व्यसन का त्याग पहिली प्रतिमा माना जाता है, परन्तु परस्त्री लेवन पहिली प्रतिमा भी हो सकता है, क्योंकि परस्त्रीसेवन का त्याग दुसरी प्रतिमा में माना गया है। यहां पापक को व्यसन और पाप का अन्तर समझना चाहिये। अविरत सम्यग्दृष्टि को पहिलो प्रतिमा का धारण करना अनिवार्य नहीं है। इस लिये सप्तव्यसन का त्याग भी अनिवार्य न कहलाया । हाँ, अभ्यास के रूप में वह बहुत सी बातों का त्याग कर सकता है, परन्तु इस से वह त्यागी या वती नहीं कहला सकता । और, सम्यस्त्वी परस्त्री-सेवी रहे । या परस्त्री-त्यागी, परन्तु सम्यक्त्व का विधवा विवाहसे कोई विरोध नहीं होसकता, क्योंकि विधवा विवाह परस्त्री सेवन नहीं है। यह बात में "अ" नम्बर के समाधान में सिद्ध कर चुका है। . प्राक्षेप (इ) यह नियम करना कि सातवें नरक में , सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता, लेखक की अक्षता है। क्या वहाँ । सायिक सम्यक्त्व हो जाता है ? नरकों में नारकी अपने किये । हुए पापों का फल भोगते हैं। यदि वहां मी चे विधवाविवाह से अधिक पाप-करने वाले ठहर जायें तो उस किए हुए पाप का फल कहाँ भोगे?

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