Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 18
________________ GB स्वराजलि छ Er. R. K. Kabra (M.E., M.B.A.) & Er. J. L. Rathore (M.E.) Ex-Chief Engineer, M.P. Elect. Board परम पूज्य अध्यात्मयोगी श्री महेन्द्रसागरजी म.सा. की प्रेरणा से परम पूज्य युवामनीषी श्रीमनीषसागरजी (पूज्य श्री महेन्द्रसागरजी म.सा. के सांसारिक पुत्र) ने “जैनआचारमीमांसा में जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व" पर जो अनूठी व विलक्षण पुस्तक की रचना की है, उसके मर्म (Essence) को समझने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। गहन चिन्तन-मनन से सीधे-सरल शब्दों में रचित यह पुस्तक एक 15 वर्ष के बालक से 80 साल के बुजुर्ग व्यक्ति के जीवन के सम्पूर्ण आयामों को स्पर्श करती है, चाहे वे वैयक्तिक जीवन से सम्बन्धित - शिक्षा, समय, शरीर, अभिव्यक्ति एवं मन प्रबन्धन हो, सामाजिक जीवन से सम्बन्धित - पर्यावरण, समाज, परिवार, अर्थ एवं भोगोपभोग प्रबन्धन हो अथवा आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित धर्म एवं आध्यात्मिक प्रबन्धन क्यों न हो। जीवन-प्रबन्धन के सूक्ष्म से सूक्ष्म व्यवहार के बारे में जैन धर्म क्या बताता है, इसका सैद्धान्तिक (Theoretical) और व्यावहारिक (Practical) मार्गदर्शन यह ग्रन्थ करता है। किसी भी धर्म का कोई भी व्यक्ति ‘जीवन-निर्वाह' या उससे बढ़कर 'आत्मकल्याण (जीवन-निर्माण)' हेतु इस सद्ग्रन्थ का अध्ययन कर इसमें निर्दिष्ट प्रबन्धन-सूत्रों को जीवन में अपना सकता है। जीवन-प्रबन्धन, जीवन-विज्ञान, जीवन-कला पर आज पूरे विश्व में कई प्रकार की सामग्रियाँ व प्रयोगात्मक विधियाँ उपलब्ध हैं, पर इन सभी में प्रायः कुछ न कुछ अपूर्णता रही हैं। किसी ने धर्म अर्थ, काम – इस त्रिवर्ग को ही जीवन-साध्य मानकर मोक्ष पुरूषार्थ का लोप कर दिया है, तो किसी ने भौतिक संस्कृति से प्रभावित होकर, काम और अर्थ की वासना से ग्रसित होकर मोक्ष (परम शान्ति) तथा इसके साधनरूप धर्म (नैतिकता) की ही उपेक्षा कर दी है। मुझे लगता है, जीवन-प्रबन्धन के सभी पक्षों का सन्तुलित रूप मुनिश्री मनीषसागरजी के इस ग्रन्थ के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस श्रेष्ठ कृति का उपयोग भविष्य में अन्य कार्यों, जैसे - स्कूल एवं कॉलेज के थियोरिटिकल/प्रेक्टिकल कोर्सेस आदि हेतु किया जा सकता है। निश्चय ही यह ग्रन्थ 'मानव' में 'मानवता' लाने हेतु आज एक उपयोगी कृति है और नैतिक पतन को रोकने हेतु एक उपयोगी साधन (Tool) भी। मनुष्य इसका अधिक से अधिक पठन कर इसकी शिक्षाओं को जीवन में उतार सके, तो इस ग्रन्थ की सार्थकता होगी। एक सुझाव भी है कि इस ग्रन्थ को विश्वव्यापी बनाने हेतु इसका अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित हो सके, तो उत्तम होगा। इस श्रेष्ठ ग्रन्थ के प्रकाशन के शुभ अवसर पर प.पू. मुनिश्री महेन्द्रसागरजी म.सा. एवं मुनिश्री मनीषसागरजी म.सा. आदि ठाणा 7 को सादर प्रणाम व वन्दन 25 सितम्बर, 2012 इन्दौर रामकृष्ण काबरा / जयन्तिलाल राठौड़ ای سی سی می می می می می می می می می می می می می می می میری عمر می जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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