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वन्दना के स्वर
जैन धर्म के दर्शन पर अनेक ग्रन्थ और पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इस धर्म के पालन हेतु नियम, अनुशीलन आदि के बारे में उपदेश, व्याख्यान, आलेखों से बहुत जानने, सुनने, पढ़ने को मिल जाता है। बहुत प्राचीन काल के ग्रन्थों में इस धर्म की व्याख्या, शिक्षा, महत्ता का विवरण मिलता है । पूजा, आराधना, वन्दन की लिखित और मुद्रित रचनाओं, गाथाओं, श्लोकों को जैन धर्मावलम्बी अत्यन्त सम्मान, आदर और विश्वास के साथ प्रभु दर्शन की प्रक्रिया के रूप में, ध्यान लगाकर उच्चारित करते हैं। उनका अर्थ समझ में आए न आए, उसकी इच्छा किए बिना उच्चारण के लय और भावना की एकाग्रता से प्रभुदर्शन की संतुष्टि मिलती है । पर क्या ? इतना ही और ऐसे प्रभुदर्शन और प्रभु आराधना करना किसी को भी सम्पूर्ण स्वरूप में जैन बना देता है। क्या इतनी क्रिया मात्र से स्वयं के जैन होने की संतुष्टि की इति है ? विनयपूर्वक कहना चाहूँगा - ऐसा सोच सतही तौर पर स्वयं को संतुष्ट रखने से अधिक कुछ नहीं है ।
Shri Abhay Chajlani (Padmashri, D.Lit.) Ex-Chief Editor, 'Naiduniya', Indore
इस सोच के बाद प्रश्न उठता है, फिर कोई क्या करे? जिससे मन को जैन धर्म के पालन से संतोष मिले। जैन धर्म को स्वीकार करने वाले के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वह अपने जीवन में पाँच गुणों का परिपालन करे (1) अहिंसा, (2) दया, (3) सत्य, (4) अनेकांतवाद, (5) अपरिग्रह | दैनंदिन जीवन में, तेज रफ्तार से परिवर्तित हो रही परिस्थितियों, साधनों और नैतिक मूल्यों के कमजोर होने की स्थिति में, इन पाँच आदर्शों का पालन कर पाना कैसे सम्भव है?
इस निराशा का उत्तर मिलता है पीएच.डी. की उपाधि से सम्मानित शोध प्रबन्ध, “जैनआचारमीमांसा में जीवन - प्रबन्धन के तत्त्व (एक तुलनात्मक अध्ययन ) " से। जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय (लाडनूँ) की स्वीकृति से किए गए शोध-प्रबन्ध के शोधार्थी हैं- मुनि मनीषसागर जी ।
जैन-धर्म को समय व परिस्थितियों के अनुसार, अंगीकार करने हेतु जितनी सरलता और सहजता के साथ विश्लेषित कर समझाने की कोशिश उन्होंने की है, वह सराहनीय है। धर्म के पुराने ग्रन्थों की भाषा में जो समझ पाना मुश्किल है, उसे इस शोध-ग्रन्थ ने आसान कर दिया है।
जैन धर्म का एक गम्भीर क्षेत्र है
स्वाध्याय, ध्यान, तपस्या आदि, पर सभी के लिये इस रास्ते पर चलना आसान नहीं होता। अगर जैन धर्म - अनुयायी इस शोध कार्य के विवरणों, विश्लेषण को भी समझ पाएँ, तो धर्म का आधार और अधिक मज़बूत और सहज हो सकता है। वे परिवर्तित हो रहे हालातों में भी जैन-दर्शन में स्थापित जीवन-पद्धति को गम्भीरता से समझ सकेंगे। मुनिवर को प्रणाम ।
इस लेखन पर किसी के मन में कुछ अन्यथा टिप्पणी लगती हो, तो करबद्ध मिच्छामि दुक्कड़ ।
22 अक्टूबर, 2012
इन्दौर
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जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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अभय जलानी अभय छजलानी
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