Book Title: Gyanankusham Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 8
________________ ******** aleHopRi ******* वैसे अ- अनार का, इ-इमली का पढ़ाते हैं। जब वह बड़ा हो जाय, तब भी गुरुजी ने मुझे अ- अनार का ऐसा पढ़ाया था, यह तर्क देकर वैसा ही लता रहे, तो क्या कोई उसे बुध्दिमान कहेगा ? किसी रोगी को कुशल वैद्य सर्व प्रथम साधारण भोजन करने उपवेश देता है, ताकि रोगी की पाचन शक्ति ठीक हो जाय, फिर पूर्ण अवस्थ होने के लिए शक्तिवर्धक भोजन देता है, उसीप्रकार संसार में परिभ्रमण करने वाले भव्य जीव को परम कृपालु आचार्य परमेष्ठी शुभ से निर्वृत्त होकर सर्व प्रथम शुभ में प्रवेश करने का उपदेश देते हैं। भव्य जीव अपनी आत्मशक्ति का विकास कर लेता है, तब उसे शुभ भी विरत कराकर स्व-स्वभाव में अवस्थित रहने का उपदेश देते हैं। अतः पुण्यं कुरुष्व जैसे उपदेश प्रारंभिक शिष्य का उद्धार करते हैं, उसीप्रकार पुण्य का हेयस्वरूप वाणी का विन्यास साधकशिष्य 'विकास में कारण है। ( श्लोक ३ का भावार्थ) सम्यग्ज्ञान को सूर्य की उपमा दी गई है। उपमा क्वचित् साम्यता विलोक कर किया गया आरोप है। क्या साम्य है दानो में ? इस छोटी 'बात को बताने के लिए ज्ञान और सूर्य में १० समानतायें प्रकट की है। (श्लोक ३१ का भावार्थ) इससे आपके गहन चिन्तन का बोध होता है। आप का आध्यात्मिक ज्ञान तो गहन है ही, आयुर्वेदादि लौकिक अध्ययन में भी आपका कोई सानी नहीं । चिन्ता से व्याधि तथा बल के शि का क्या सम्बन्ध है ? इस बात को (श्लोक ३४) जिसतरह आपने भिव्यक्त किया है, वह आश्चर्योत्पादक है। इसतरह आपके द्वारा की गई यह टीका सर्वांगीन दृष्टि से परिपूर्ण का है। * मुनिश्री का ज्ञान ध्यान एवं तप का ऐश्वर्य सतत वृध्दिंगत हों, मंगल कामना । आर्यिका द्वय सुविधि- सुयोगमती **********Page Navigation
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