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वह धर्म द्रव्य ठहरी हुई मछलियों को गति नहीं कराता अर्थात् गति में प्रेरक नहीं होता। स्थितियुक्त पुद्गल और जीवों के लिए अर्थात् ठहरे हुओं के लिए अधर्म द्रव्य स्थिति में सहकारी होता है, जैसे- पथिकों के लिए छाया किन्तु वह अधर्म द्रव्य चलते हुए पथिकों को ठहराता नहीं है अर्थात् ठहराने में प्रेरक नहीं होता । आकाश द्रव्य - लोकाकाश, अलोकाकाश के भेद से दो प्रकार का है। जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश (जगह) देने में योग्य (समर्थ) है वह लोकाकाश है उससे आगे अलोकाकाश कहा गया है। द्रव्य में पहिचानने योग्य परिवर्तन आदि काल का द्योतक होता है वह व्यवहार काल है और पहचानने योग्य परिवर्तन का आधार, परमार्थकाल होता है। परिवर्तन 'समय' में होता है अतः उसका आधार काल द्रव्य ही परमार्थ काल है।
आत्मा के जिस भाव से कर्म को प्रवेश मिलता है वह भावास्रव है। ज्ञानावरण कर्म आदि के योग्य जो पुद्गल भाव के साथ-साथ आता है, वह द्रव्यास्रव है। आत्मा के राग-द्वेषादि भाव से कर्म बांधा जाता है वह भावबंध है और कर्म तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर / आपस में प्रवेश वह द्रव्यबंध है। आत्मा का भाव जो कर्म के आस्रव को रोकने में कारण है वह भावसंवर है और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है वह द्रव्यसंवर है। आत्मा के जिस भाव से भोगा हुआ सुखात्मक और दुखात्मक रस विलीन हो जाता है वह भाव निर्जरा और उचित समय आने पर तप द्वारा पुद्गलकर्म उस आत्मा का नष्ट होता है वह द्रव्य निर्जरा है। जो सब कर्म के नाश का कारण आत्मा का परिणाम है वह भावमोक्ष है और कर्म की आत्मा से पृथक अवस्था द्रव्यमोक्ष है।
व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष का कारण है। निश्चयनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय अपनी आत्मा ही है। आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय विद्यमान नहीं होता, इसलिए निश्चय
द्रव्यसंग्रह
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