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57. तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा।
तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह।।
तवसुदवदवं
तपवान, श्रुतवान, व्रतवान
चेदा
आत्मा ध्यान रूपी रथ का
ज्झाणरहधुरंधरो
धुरंधर होता है
हवे जम्हा तम्हा तत्तियणिरदा
[(तव)-(सुद)(वदवन्त-वदवं)
1/1 वि अनि] (चेद) 1/1 [(ज्झाण)-(रह)(धुरंधर) 1/1 वि] (हव) व 3/1 अक अव्यय अव्यय [(त) सवि-(त्तियणिरद)
1/2 वि] (तल्लद्धि) 4/1
अव्यय (हो) विधि 2/2 अक
चूँकि इसलिए उन तीनों में तल्लीन
तल्लद्धीए सदा
उसकी प्राप्ति के लिए हमेशा होओ
होह
अन्वय- जम्हा तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे तम्हा तल्लद्धीए सदा तत्तियणिरदा होह।
अर्थ- चूँकि तपवान, श्रुतवान, व्रतवान आत्मा ध्यान रूपी रथ का धुरंधर होता है इसलिए उसकी प्राप्ति के लिए हमेशा (तुम सब) उन तीनों (तप, श्रुत, व्रत) में तल्लीन होओ।
1.
वान या वाला अर्थ के लिए ‘मन्त' प्रत्यय जोड़ा जाता है। मन्त जोड़ते समय 'म' का 'व' हो जाता है। मन्त→वन्त→वं यहाँ म का व न का अनुस्वार तथा त का लोप हुआ है। प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ-679।
2.
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