Book Title: Dravyasangraha
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि नेमिचन्द सिद्धान्तिदेव-रचित द्रव्यसंग्रह (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन লন্ত অতীত্রী জীৱী जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि नेमिचन्द सिद्धान्तिदेव-रचित द्रव्यसंग्रह (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादा अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी ICE पाणुज्जीवी जीवी जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष - 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 दूरभाष - 0141-2385247 प्रथम संस्करण : अप्रैल, 2013 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य -200 रुपये ISBN 978-81-926468-1-7 पृष्ठ संयोजन फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष - 0141-2562288 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका - लं + ॐ क्र.सं. विषय पृष्ठ संख्या प्रकाशकीय ग्रंथ एवं ग्रंथकाराः सम्पादक की कलम से द्रव्यसंग्रह से प्राकृत भाषा कैसे सीखें? संकेत-सूची पहला अधिकार (छह द्रव्य, पंचास्तिकाय का निरूपण) दूसरा अधिकार (सात तत्त्व, नव पदार्थ का निरूपण) तीसरा अधिकार (मोक्षमार्ग का निरूपण) मूल पाठ परिशिष्ट-1 (i) संज्ञा-कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त-कोश (iv) विशेषण-कोश (v) संख्या-कोश (vi) सर्वनाम-कोश (vii) अव्यय-कोश परिशिष्ट-2 छंद 105 सहायक पुस्तकें एवं कोश 109 For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय मुनि नेमिचन्द सिद्धान्तिदेव-रचित 'द्रव्यसंग्रह' व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय एवं व्याकरणात्मक अनुवाद सहित अध्ययनार्थियों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। _ 'द्रव्यसंग्रह' जैनधर्म-दर्शन को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करनेवाली प्राकृत भाषा में रचित एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें कुल 58 गाथाएँ हैं जिनमें छह द्रव्यों, नौ पदार्थों और मोक्षमार्ग का निरूपण किया गया है। यह निरूपण पारम्परिक होते हुए भी कई विशेषताएँ लिये हुए हैं- 1. जीव का स्वरूप निश्चय-व्यवहार नय को आधार मानकर समझाया गया है। 2. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का वर्णन भी निश्चय-व्यवहार नय के माध्यम से किया गया है। 3. ध्यान का वर्णन करते समय उत्कृष्ट ध्यान की रीति भी भलीभाँति समझाई गई है। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने लिखा है: “इसमें तीन अधिकार हैं। पहला षद्रव्य, पंचास्तिकाय के निरूपण का अधिकार है। उसमें 27 गाथाएँ हैं। पहली गाथा तो मंगलाचरणरूप है, दूसरी गाथा जीव के नव अधिकारों के नामों के संग्रहरूप है, बारह गाथाओं में जीवद्रव्य का नव अधिकारों से विवरण है, आठ गाथाओं में अजीवद्रव्य का कथन है, फिर पाँच गाथाओं में पंचास्तिकाय का प्ररूपण है। दूसरा सात तत्त्व, नव पदार्थ के निरूपण का अधिकार है। इसमें 11 गाथाएँ हैं। तीसरा (v) For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिकार मोक्षमार्ग के निरूपण का अधिकार है। इसमें 20 गाथाएँ हैं। आठ गाथाओं में निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्ग का प्ररूपण है, ग्यारह गाथाओं में ध्यान का व्याख्यान है और ग्रंथ की अंतिम गाथा में स्वागता छंद में प्राकृतरूप में आचार्य ने अपनी लघुता प्रकट की है। इस प्रकार अट्ठावन गाथाओं में ग्रन्थ समाप्त किया है।" द्रव्यसंगह में मात्रिक व वर्णिक छंद का प्रयोग किया गया है। सत्तावन गाथाओं में मात्रिक व अंतिम गाथा में वर्णिक छंद है। मात्रिक छंद में गाहा व उग्गाहा छंद प्रयुक्त हुए हैं। _ 'द्रव्यसंग्रह' इस प्रकार तैयार किया गया है कि अध्ययनार्थी ‘द्रव्यसंग्रह' से प्राकृत भाषा सीख सकें। प्राकृत भाषा को सीखने-समझने की दिशा में यह प्रथम व अनूठा प्रयास है। इसका प्रस्तुतिकरण अत्यन्त सहज, सरल, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इस पुस्तक में गाथाओं का व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय तथा व्याकरणात्मक अनुवाद दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्त-कोश, विशेषण-कोश, संख्याकोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिये गये हैं। गाथाओं में प्रयुक्त छंदो के नाम दिये गये हैं जिससे पाठक छंद का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। यह पुस्तक पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी, और पाठक 'द्रव्यसंग्रह' के माध्यम से प्राकृत भाषा का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है। ___ श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से 'द्रव्यसंग्रह' को प्रस्तुत किया है जिससे अध्ययनार्थी प्राकृत भाषा को सीखने में अनवरत उत्साह बनाये रख सकेंगे। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं। (vi) For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने 'द्रव्यसंग्रह' का व्याकरणात्मक अनुवाद करके प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादाह है। जस्टिस नगेन्द्र कुमार जैन प्रकाशचन्द्र जैन डॉ. कमलचन्द सोगाणी अध्यक्ष मंत्री संयोजक प्रबन्धकारिणी कमेटी जैनविद्या संस्थान समिति दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी जयपुर वीर निर्वाण संवत्-2539 23.04.2013 For Pers(vii)rivate Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ और ग्रन्थकार संपादक की कलम से आचार्य नेमिचन्द सिद्धान्तिदेव द्वारा रचित द्रव्यसंग्रह 11 वीं शताब्दी की कृति है। शौरसेनी प्राकृत भाषा की 58 गाथाओं में रचित यह रचना लघु होते हुए भी सारगर्भित, मौलिक और अपूर्व है। यह असंदिग्ध है कि नेमिचन्द मुनि के सम्मुख आचार्य कुन्दकुन्द का साहित्य और नेमिचन्द्राचार्य रचित गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इनका गहन अध्ययन किया और इनसे प्राप्त ज्ञान को एक सुन्दर माला में संजोकर अपने व्यक्तिगत साधना के अनुभव को इसमें जोड़कर द्रव्यसंग्रह तैयार किया। निस्सन्देह यह ग्रन्थ मोक्षमार्ग के साधकों को दृष्टि में रखकर ही लिखा गया है, किन्तु इसमें जैन अध्यात्म के सारभूत तत्त्व सम्मिलित किये गये हैं। इसमें ध्यान का विलक्षण प्रतिपादन है। निश्चय-व्यवहार की समझ वादविवाद से हल नहीं की जा सकती है। ध्यान से ही इसके भेद को हृदयंगम किया जा सकता है। निश्चय-व्यवहार को यह ग्रन्थ बहुत ही सहज रूप में साथ लेकर चला है। भावनिर्जरा में 'भुत्तरसं' की धारणा मौलिक है। इस तरह से पारंपरिक प्रतिपादन में कुछ नई आध्यात्मिक धारणाएँ इस ग्रन्थ को उच्चस्तरीय स्वीकारने के लिए बाध्य करती है। इस ग्रन्थ का पाठ करने पर पूरा जैन-धर्म-दर्शन आँखों के सामने सदैव उपस्थित रहेगा और साधक पदच्युत होने से बचेगा। लगता है इन बातों के कारण ही द्रव्यसंग्रह को कण्ठस्थ करना मुनिचर्या का हिस्सा बन गया है। ग्रन्थ की इन्हीं महत्त्वपूर्ण बातों के कारण मेरे सुझाव पर श्रीमती शकुन्तला जैन, एम. फिल. ने प्राकृत का व्याकरणिक विश्लेषण और इसका व्याकरणात्मक हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। इस प्रकार के प्रस्तुतिकरण से प्राकृत भाषा इस ग्रन्थ से सीखी जा सकेगी, ऐसी आशा है। द्रव्यसग्रह (1) For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिचन्द मुनि ने द्रव्यसंग्रह में जैनधर्म की प्रायः सभी मौलिक अवधारणाओं को स्थान दिया है- उदाहरणार्थ, जीव का स्वरूप व जीवों का वर्गीकरण, उपयोग की धारणा, पुद्गल का स्वरूप, प्रदेश की धारणा, कर्मों का पुद्गलात्मक होना, सम्यग्दर्शन का स्वरूप, तार्किक ज्ञान और सम्यग्ज्ञान में भेद, पंचास्तिकाय की धारणा, उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की धारणा, निश्चय और व्यवहार का गाथाओं में प्रयोग आदि। ये सभी अवधारणाएँ नेमिचन्द मुनि को परंपरा से प्राप्त हुई हैं जिनको उन्होंने अपने ग्रन्थ में स्थान देकर जैनधर्म को संक्षेप में प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है। द्रव्यसंग्रह के तीन अधिकारों में षड् द्रव्य-सप्त तत्त्व-मोक्ष की अवधारणा को समझाया गया है जो प्रस्तुत है: जिसके तीन काल में चार प्राण- इन्द्रिय, बल, आयु, श्वास निकालना और श्वास लेना होते हैं वह व्यवहारनय से जीव है किन्तु निश्चयनय से जीव निस्सन्देह चैतन्य होता है। वर्ण, रस, गंध, स्पर्श ये निश्चयनय से जीव में नहीं होते हैं उस कारण से जीव अमूर्तिक है। व्यवहारनय से जीव कर्म पुद्गल के बंध से मूर्तिक होता है। अनेक प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं, जैसे- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और वनस्पति। दो इन्द्रिय से जाननेवाले, तीन इन्द्रिय से जाननेवाले, चार और पाँच इन्द्रियों से जाननेवाले त्रस जीव होते हैं, जैसे- शंख आदि। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छह द्रव्य है। रूपादि गुणवाला होने से पुद्गल मूर्तिक होता है किन्तु शेष जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अमूर्तिक होते हैं। शब्द, बंध (बंधन), सूक्ष्म-स्थूल संस्थान (आकृति), भेद (टुकड़े-टुकड़े होना), तम (अंधकार), छाया, उद्योत (प्रकाश), आतप (सूर्य, अग्नि आदि की गर्मी) पुद्गल की पर्यायें हैं। गति में परिवर्तित पुद्गल और जीवों के लिए धर्म द्रव्य गति में सहकारी होता है, जैसे- मछलियों के लिए जल किन्तु V acation International For Personal & Private Use Only द्रव्यसग्रह www.jathelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह धर्म द्रव्य ठहरी हुई मछलियों को गति नहीं कराता अर्थात् गति में प्रेरक नहीं होता। स्थितियुक्त पुद्गल और जीवों के लिए अर्थात् ठहरे हुओं के लिए अधर्म द्रव्य स्थिति में सहकारी होता है, जैसे- पथिकों के लिए छाया किन्तु वह अधर्म द्रव्य चलते हुए पथिकों को ठहराता नहीं है अर्थात् ठहराने में प्रेरक नहीं होता । आकाश द्रव्य - लोकाकाश, अलोकाकाश के भेद से दो प्रकार का है। जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश (जगह) देने में योग्य (समर्थ) है वह लोकाकाश है उससे आगे अलोकाकाश कहा गया है। द्रव्य में पहिचानने योग्य परिवर्तन आदि काल का द्योतक होता है वह व्यवहार काल है और पहचानने योग्य परिवर्तन का आधार, परमार्थकाल होता है। परिवर्तन 'समय' में होता है अतः उसका आधार काल द्रव्य ही परमार्थ काल है। आत्मा के जिस भाव से कर्म को प्रवेश मिलता है वह भावास्रव है। ज्ञानावरण कर्म आदि के योग्य जो पुद्गल भाव के साथ-साथ आता है, वह द्रव्यास्रव है। आत्मा के राग-द्वेषादि भाव से कर्म बांधा जाता है वह भावबंध है और कर्म तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर / आपस में प्रवेश वह द्रव्यबंध है। आत्मा का भाव जो कर्म के आस्रव को रोकने में कारण है वह भावसंवर है और जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण है वह द्रव्यसंवर है। आत्मा के जिस भाव से भोगा हुआ सुखात्मक और दुखात्मक रस विलीन हो जाता है वह भाव निर्जरा और उचित समय आने पर तप द्वारा पुद्गलकर्म उस आत्मा का नष्ट होता है वह द्रव्य निर्जरा है। जो सब कर्म के नाश का कारण आत्मा का परिणाम है वह भावमोक्ष है और कर्म की आत्मा से पृथक अवस्था द्रव्यमोक्ष है। व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष का कारण है। निश्चयनय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय अपनी आत्मा ही है। आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय विद्यमान नहीं होता, इसलिए निश्चय द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only (3) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से आत्मा ही मोक्ष का कारण होता है। जीव आदि पर श्रद्धा सम्यक्त्व है। वह सम्यक्त्व रत्नत्रययुक्त आत्मा का स्वरूप ही है। सम्यक्त्व विद्यमान होने पर तार्किक दोष से रहित ज्ञान भी सम्यक् अध्यात्म दृष्टिवाला हो जाता है। अशुभ भाव से निवृत्ति और शुभ भाव में प्रवृत्ति व्यवहारनय से चारित्र है। वह चारित्र व्रत, समिति और गुप्ति से युक्त होता है। संसार के कारणों का विनाश करने के लिए ज्ञानी के जो बाह्य (शुभ-अशुभात्मक) और अंतरंग विकल्पात्मक क्रियाओं का निरोध है वह उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है। चूँकि दो प्रकार के (निश्चय और व्यवहार रूप) मोक्ष के कारण को मुनि ध्यान में अनिवार्य रूप से प्राप्त करते हैं इसलिए अनवरत प्रयास सहित चित्त से ध्यान का खूब अभ्यास करना चाहिये। अद्भुत ध्यान की सम्पन्नता के लिए तो स्थिर चित्त करो और उसके लिये इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में तादात्म्य करके मूर्च्छित मत होवो, आसक्त मत होवो और उन पर दोष मत थोपो। किसी पदार्थ का थोड़ा भी ध्यान करते हुए एकाग्रता को प्राप्त करके साधुजन निष्काम वृत्तिवाले हो जाते हैं तब उनके उस ध्यान को निश्चय ध्यान कहा गया है। कुछ भी काय की क्रिया मत करो, कुछ भी मत बोलो, कुछ भी विचार मत करो जिससे आत्मा आत्मामें तृप्त हुआ स्थिर हो जाता है। यही सर्वोत्तम/उत्कृष्ट ध्यान होता है। द्रव्यसंग्रह में जो पारिभाषिक शब्दावली आई है, उसकी व्याख्या करने का हमने प्रयत्न नहीं किया है, उसको पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ के द्वारा संपादित 'अर्हत् प्रवचन' से, श्री ब्रह्मदेव की टीका से तथा श्री जयचन्द जी छाबड़ा की ढूँढारी भाषा की टीका से समझा जा सकता है। हमारा मूल उद्देश्य यहाँ द्रव्यसंग्रह के माध्यम से प्राकृत सिखाना है। (4) ducation International For Personal & Private Use Only www द्रव्यसंग्रह Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसंग्रह से प्राकृत भाषा कैसे सीखें? द्रव्यसंग्रह से प्राकृत भाषा सीखने के लिए कुछ सोपान दिए जा रहे हैं जिनको हृदयंगम करने से आप सरल एवं सुचारु रूप से प्राकृत भाषा सीख सकते ontc 1. लं + vio सर्वप्रथम आप ‘प्राकृत रचना सौरभ' में से प्रारम्भिक (पृष्ठ vii, viii) पढ लें। द्रव्यसंग्रह में दी गयी संकेत-सूची समझ लें। द्रव्यसंग्रह में दिये गये संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्त-कोश, विशेषणकोश, संख्या-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश का अध्ययन कर लें। द्रव्यसंग्रह की मूलगाथा एवं व्याकरणिक विश्लेषण को पढ लें। गाथाओं के अन्वय एवं व्याकरणात्मक अनुवाद को व्याकरणिक विश्लेषण के साथ पढ़ें। संज्ञा एवं सर्वनाम शब्दों की रूपावली के लिए 'प्राकृत रचना सौरभ' के पाठ 84 का अध्ययन कर लें। संख्यावाची शब्दों की रूपावली के लिए 'प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ' (भाग-1) के पाठ 4 का अध्ययन कर लें। अनियमित कर्मवाच्य और अनियमित भूतकालिक कृदन्त के लिए प्राकृत अभ्यास सौरभ' के अभ्यास 39 एवं अभ्यास 40 का अध्ययन कर लें। अंत में द्रव्यसंग्रह की गाथाओं में प्रयुक्त छंदों को समझना उपयोगी होगा। इस प्रकार अध्ययन करने से आप प्राकृत भाषा को भलीभाँति सीख 7. 8. सकेंगे। द्रव्य सग्रहtion International For Personal & Private Use Only www.jaineli(5)rg Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची प्राकृत भाषा को अच्छी तरह समझने के लिए गाथा में निहित प्रत्येक पद जैसे-संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि का व्याकरणिक रूप से विश्लेषण करने का ज्ञान होना अति आवश्यक है। व्याकरणिक विश्लेषण को भलीभाँति समझने के लिए संकेत-सूची प्रस्तुत की जा रही है, जिसके माध्यम से आप गाथाओं में दिये गये संकेतों को भलीभाँति समझ सकेंगे। अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म - कर्मवाच्य क्रिविअ - क्रिया विशेषण अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भूकृ - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त स - सर्वनाम संकृ - संबंधक कृदन्त (6) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग ()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। •[()+()+()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। •[()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिह्न समास का द्योतक {[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। 'जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द संज्ञा' है। 'जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर ‘अनि' भी लिखा गया है। क्रिया-रूप निम्न प्रकार लिखा गया है 1/1 अक या सक - उत्तम पुरुष/एकवचन 1/2 अक या सक - उत्तम पुरुष/बहुवचन 2/1 अक या सक - मध्यम पुरुष/एकवचन 2/2 अक या सक - मध्यम पुरुष/बहुवचन 3/1 अक या सक - अन्य पुरुष/एकवचन 3/2 अक या सक - अन्य पुरुष/बहुवचन द्रव्यसग्रह nternational For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तियाँ निम्न प्रकार लिखी गई है 1/1 - प्रथमा/एकवचन 1/2 - प्रथमा/बहुवचन 2/1 - द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1 - तृतीया/एकवचन 3/2 - तृतीया/बहुवचन 4/1 - चतुर्थी/एकवचन 4/2 - चतुर्थी/बहुवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 - पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 - सप्तमी/एकवचन 7/2 - सप्तमी/बहुवचन द्रव्यसग्रह Jail Education International For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला अधिकार (छह द्रव्य, पंचास्तिकाय का निरूपण) For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिद्दिटुं। देविंदविंदवंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा।। जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिविट्ठ देविंदविंदवंद [(जीव)+ (अजीवं)] जीवं (जीव) 1/1 अजीवं (अजीव) 1/1 वि (दव्व) 1/1 [(जिणवर)(वसह) 3/1] (ज) 3/1 सवि (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि [(देविंद)-(विंद)-(वंद) विधिकृ 2/1 अनि (वंदे) व 1/1 सक अनि (त) 2/1 सवि अव्यय (सिरसा) 3/1 अनि जीव अजीव द्रव्य जिनवर ऋषभ के द्वारा जिस (जिन) के द्वारा कहा गया है देवेन्द्रों के समूह द्वारा वंदनीय प्रणाम करता हूँ उनको सदा सिर से सव्वदा सिरसा अन्वयं- जेण जिणवरवसहेण जीवमजीवं दव्वं णिद्दिटुं तं देविंदविंदवंदं सव्वदा सिरसा वंदे। अर्थ- जिन जिनवर (अरिहंत) ऋषभ के द्वारा जीव-अजीव द्रव्य कहा गया है उन देवेन्द्रों के समूह द्वारा वंदनीय (ऋषभदेव) को (मैं) सदा सिर से प्रणाम करता हूँ। द्रव्यसंग्रह (11) For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्स सोड्डगई।। कर्ता भोत्ता सिद्ध सो वह जीवो (जीव) 1/1 वि जीवरूप उवओगमओ (उवओगमअ) 1/1 वि उपयोगमय *अमुत्ति (मूलशब्द) (अमुत्ति) 1/1 वि अमूर्तिक कत्ता (कत्तु) 1/1 वि सदेहपरिमाणो {[(स-देह)-(परिमाण) . अपनी देह के 1/1] वि} परिमाणवाला (भोत्तु) 1/1 वि भोक्ता संसारत्थो (संसारत्थ) 1/1 वि संसार में स्थित सिद्धो (सिद्ध) 1/1 वि (त) 1/1 सवि *विस्स (मूलशब्द) (विस्स) 7/1 लोक में/तक सोडगई [(स) + (उड्डगई)] [(स) वि -(उढगइ) उर्ध्वगति सहित 1/1] अन्वय- सो जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो भोत्ता संसारत्थो सिद्धो विस्स सोडगई। अर्थ- वह (जीव द्रव्य) जीवरूप, उपयोगमय, अमूर्तिक, कर्ता, अपनी देह के परिमाणवाला, भोक्ता, संसार में स्थित, सिद्ध, लोक में/तक उर्ध्वगति सहित (होता है)। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (12) द्रव्यसग्रह For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो द चेदणा जस्स ।। तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउ आणपाणो य ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ( तिक्काल) 7/1 [(ag) fa-(4101) 1/2] [(इंदियबलं) + (आउ द्रव्यसंग्रह आणपाणो ) ] [ ( इंदिय) - (बल) 1 / 1 ] [ ( आउ) - ( आणपाण) 1 / 1 ] अव्यय (ववहार ) 5 / 1 सवि (त) 1 / 1 (जीव) 1 / 1 ( णिच्छयणय) 5/1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय अव्यय (चेदणा) 1/1 (ज) 6 / 1 सवि तीन काल में चार प्राण For Personal & Private Use Only इन्द्रिय, बल, आयु, श्वास निकालना और श्वास लेना और व्यवहार (नय) से वह जीव निश्चयनय से अन्वय- जस्स तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो सो ववहारा जीवो य णिच्छयणयदो द चेदणा । अर्थ - जिसके तीन काल में चार प्राण- इन्द्रिय, बल, आयु, श्वास निकालना और श्वास लेना (होते हैं) - वह व्यवहार (नय) से जीव (होता है) और (शुद्ध) निश्चयनय से (जीव) निस्सन्देह चैतन्य (होता है ) । निस्सन्देह चैतन्य जिसके (13) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा। चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं।। उवओगो (उवओग) 1/1 उपयोग दुवियप्पो {[(दु)वि-(वियप्प)1/1] वि}दो भेद वाला दंसणणाणं [(दसण)-(णाण) 1/1] दर्शन (उपयोग), ज्ञान (उपयोग) अव्यय और दसणं (दसण) 1/1 दर्शन चदुधा अव्यय चार प्रकार का *चक्खु (मूलशब्द) (चक्खु) 1/1 अचक्खू (अचक्खु) 1/1 ओही (ओहि) 1/1 अवधि दसणमध [(दंसणं)+ (अध)] दसणं (दसण) 1/1 दर्शन, अध (अ) = इसके बाद इसके बाद केवलं (केवल) 1/1 णेयं (णेय) विधिकृ 1/1 अनि समझा जाना चाहिये चक्षु अचक्षु केवल अन्वय- उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा चक्खु अचक्खू ओही दंसणं अध केवलं णेयं। अर्थ- उपयोग दो भेदवाला (है)- 1. दर्शन (उपयोग) और 2. ज्ञान (उपयोग)। दर्शन (उपयोग) चार प्रकार का (होता है)- 1. चक्षु (दर्शनोपयोग) 2. अचक्षु (दर्शनोपयोग) 3. अवधि (दर्शनोपयोग) और इसके बाद 4. केवल (दर्शनोपयोग) समझा जाना चाहिये। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (14) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणं अट्ठवियप्पं मदिसुदिओही अणाणणाणाणि। मणपज्जयकेवलमवि पच्चक्खपरोक्खभेयं च।। ज्ञान आठ भेदवाला मति, श्रुति, अवधि अज्ञानरूप, ज्ञानरूप णाणं (णाण) 1/1 अट्ठवियप्पं {[(अट्ठ) वि-(वियप्प) 1/1] वि} मदिसुदिओही [(मदि)-(सुदि) (ओहि) 1/1] अणाणणाणाणि {[(अणाण) वि-(णाण) 1/2] वि} मणपज्जयकेवलमवि [(मणपज्जयकेवलं)+ (अवि)] [(मणपज्जय)(केवल) 1/1] अवि (अ) = ही पच्चक्खपरोक्खभेयं {[(पच्चक्ख)-(परोक्ख) -(भेअ) 1/1] वि} अव्यय मनःपर्यय, केवल प्रत्यक्ष, परोक्ष भेदवाला और अन्वय-णाणं अट्ठवियप्पं मदिसुदिओही अणाणणाणाणि मणपज्जयकेवलं अवि पच्चक्खपरोक्खभेयं च। अर्थ- ज्ञान (अध्यात्म दृष्टि से) आठ भेदवाला (होता है)- मति, श्रुति, अवधि (ये तीनों मिथ्यात्व अवस्था में) अज्ञानरूप (कहे गये हैं) (और) (ये तीनों सम्यक्त्व अवस्था में) ज्ञानरूप (कहे गये हैं)। मनःपर्यय और केवल (ज्ञानरूप) ही (होते हैं)। (ये ज्ञान तार्किक दृष्टि से) प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदवाले (हैं) (अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं तथा मति, श्रुतिज्ञान परोक्ष हैं)। द्रव्यसंग्रह (15) For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. अट्ठ *चदु (मूलशब्द) * णाण (मूलशब्द) *दंसण ( मूलशब्द) सामण्णं जीवलक्खणं भणियं ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं अट्ठ चदु णाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं ।। * (3T) 1/2 fa (चदु) 1/2 वि ( णाण) 1 / 2 वि (दंसण) 1/2 वि ( सामण्ण) 1 / 1 वि [ (जीव ) - ( लक्खण) 1 / 1] (भण भणिय) भूक 1 / 1 ➡ (16) (ववहार ) 5 / 1 (सुद्धणय) 5/1 (सुद्ध) 1 / 1 वि अव्यय ( दंसण) 1 / 1 ( णाण) 1 / 1 आठ चार ज्ञानरूप दर्शनरूप साधारण जीव का लक्षण कहा गया है For Personal & Private Use Only व्यवहार (नय) से शुद्धनय से अन्वय- ववहारा जीवलक्खणं सामण्णं अट्ठ णाण चदु दंसण भणियं सुद्धणया सुद्धं दंसणं पुण णाणं । अर्थ- व्यवहार (नय) से जीव का साधारण लक्षण आठ ज्ञानरूप और चार दर्शनरूप कहा गया है। शुद्धनय से शुद्ध दर्शन और (शुद्ध) ज्ञान ( जीव का लक्षण कहा गया है)। शुद्ध और दर्शन ज्ञान प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) द्रव्यसंग्रह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ट णिच्छया जीवे। णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो।। पंच गंधा स्पर्श *वण्ण (मूलशब्द) (वण्ण) 1/2 *रस (मूलशब्द) (रस) 1/2 (पंच) 1/2 वि (गंध) 1/2 (दो) 1/2 वि फासा (फास) 1/2 अट्ठ (अट्ठ) 1/2 वि णिच्छया (णिच्छय) 5/1 (जीव) 7/1 अव्यय संति (अस) व 3/2 अक *अमुत्ति (मूलशब्द) (अमुत्ति) 1/1 वि तदो अव्यय ववहारा (ववहार) 5/1 *मुत्ति (मूलशब्द) (मुत्ति) 1/1 बंधादो (बंध) 5/1 जीवे आठ निश्चय (नय) से जीव में नहीं होते हैं अमूर्तिक उस कारण से व्यवहार (नय) से मूर्तिक बंध से अन्वय- वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे णो संति तदो अमुत्ति ववहारा बंधादो मुत्ति। ___ अर्थ- वर्ण (पाँच), रस पाँच, गंध दो, स्पर्श आठ (ये) (शुद्ध) निश्चय (नय) से जीव में नहीं होते हैं उस कारण से (जीव) अमूर्तिक है। व्यवहार (नय) से (जीव) (कर्मपुद्गल के) बंध से मूर्तिक (होता है)। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) द्रव्यसंग्रह (17) For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।। पुग्गलकम्मादी कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं [( पुग्गलकम्म) + (आदीणं) ] [ ( पुग्गल ) - (कम्म) - (आदि) 6 / 2] ( कत्तु ) 1 / 1 वि (ववहार) 5 / 1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (18) अव्यय ( णिच्छय) 5/1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय [(चेदणकम्माण) + (आदा ) ] [(चेदण) - (कम्म) 6 / 2] आदा (आद) 1/1 (सुद्धणय) 5/1 (सुद्धभाव) 6/2 पुद्गल कर्म आदि का कर्ता व्यवहार (नय) से For Personal & Private Use Only और निश्चय (नय) से अन्वय-आदा ववहारदो पुग्गलकम्मादीणं कत्ता दु णिच्छयदो भावकर्मों का आत्मा शुद्धनय से शुद्धभावों का चेदणकम्माण सुद्धणया सुद्धभावाणं । अर्थ- आत्मा व्यवहार (नय) से पुद्गल कर्म आदि का कर्ता है और (अशुद्ध) निश्चय (नय) से (राग-द्वेष आदि अशुद्ध) भावकर्मों का (तथा) शुद्धनय से शुद्धभावों का (कर्ता) है। द्रव्यसंग्रह Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स।। ववहारा व्यवहारनय से सुख-दुःख को सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पुद्गल कर्मों के फल पभुंजेदि आदा णिच्छयणयदो (ववहार) 5/1 [(सुह)-(दुक्ख) 2/1] [(पुग्गल)-(कम्म) -(प्फल) 2/1] (पभुंज) व 3/1 सक (आद) 1/1 (णिच्छयणय) 5/1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय [(चेदण)-(भाव) 2/1] अव्यय (आद) 6/1 भोगता है आत्मा निश्चयनय से चेदणभावं चेतन भाव को आदस्स निज के अन्वय- आदा ववहारा पुग्गलकम्मप्फलं सुहदुक्खं पशुंजेदि णिच्छयणयदो आदस्स खु चेदणभावं। अर्थ- आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मों के फल सुख-दुःख को भोगता है। (अशुद्ध) निश्चयनय से निज के ही चेतन (राग-द्वेष आदि अशुद्ध) भाव को (भोगता है)। (शुद्धनय से शुद्ध भावों को भोगता है)। द्रव्यसंग्रह (19) For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा।। चेदा अणुगुरुदेहपमाणो {[(अणु) वि - (गुरु) वि छोटे-बड़े शरीर - (देह)-(पमाण) 1/1] वि} प्रमाणवाली उवसंहारप्पसप्पदो [(उवसंहार)-(प्पसप्प) संकोच-विस्तार से 5/1] पंचमी अर्थक ‘दो' प्रत्यय (चेद) 1/1 आत्मा असमुहदो (अ-समुहद) 1/1 वि समुद्घात को अप्राप्त ववहारा (ववहार) 5/1 व्यवहार (नय) से णिच्छयणयदो (णिच्छयणय) 5/1 निश्चयनय से पंचमी अर्थक ‘दो' प्रत्यय असंखदेसो {[(असंख)-(देस) असंख्यात प्रदेशवाली 1/1] वि} अव्यय तथा अन्वय- असमुहदो चेदा ववहारा अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो वा णिच्छयणयदो असंखदेसो। अर्थ- समुद्घात को अप्राप्त आत्मा व्यवहार (नय) से संकोच-विस्तार (गुण) से छोटे-बड़े शरीर प्रमाणवाली (होती है) तथा (शुद्ध) निश्चयनय से (आत्मा) असंख्यात प्रदेशवाली (है)। (20) Jal Education International For Personal & Private Use Only द्रव्यसग्रह Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. पुढविजलतेयवाऊ वणप्फदी विविहथावरेइंदी। विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होंति संखादी।। वायु पुढविजलतेयवाऊ [(पुढवि)-(जल)-(तेय) पृथ्वी, जल, तेज, -(वाउ) 1/1] वणप्फदी (वणप्फदि) 1/1 वनस्पति विविहथावरेइंदी [(विविहथावर) + (एअ)+ (इंदी)] [(विविह) वि-(थावर) अनेक प्रकार के - (एअ) वि-(इंदि) 1/1] स्थावर एक इन्द्रिय विगतिगचदुपंचक्खा [(विगतिगचदुपंच)+(अक्खा)] [(विग) वि-(तिग) वि- दो (इन्द्रिय) से गमन (चदु) वि-(पंच) वि- करनेवाले, तीन (अक्ख) 5/1] (इन्द्रिय) से गमन करनेवाले, चार, और पाँच इन्द्रियों से (गमन करनेवाले) तसजीवा (तसजीव) 1/2 त्रस जीव होंति (हो) व 3/2 अक होते हैं संखादी [(संख)+(आदी)] [(संख)-(आदि) 1/] शंख आदि अन्वय- विविहथावरेइंदी पुढविजलतेयवाऊ वणप्फदी विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होंति संखादी। । अर्थ- अनेक प्रकार के स्थावर एक इन्द्रिय (जीव होते हैं) (जैसे) पृथ्वी, जल, तेज, वायु, (और) वनस्पति। दो (इन्द्रिय) से गमन करनेवाले, तीन (इन्द्रिय) से गमन करनेवाले, चार (और) पाँच इन्द्रियों से (गमन करनेवाले) त्रस जीव होते हैं (जैसे) शंख आदि। द्रव्यसग्रह For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. समणा अमणा णेया पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे। बादरसुहमेइंदी सव्वे पज्जत्त इदरा य।। समणा (समण) 1/2 वि मनवाले अमणा (अमण) 1/2 वि अमनवाले णेया (णेय) विधिकृ 1/2 अनि समझे जाने चाहिये *पंचिंदिय (मूलशब्द) [(पंच)+ (इंदिय)] [(पंच) वि-(इंदिय) 1/2] पाँच इन्द्रिय णिम्मणा (णिम्मण) 1/2 वि मन से रहित (पर) 1/2 वि अन्य सव्वे (सव्व) 1/2 सवि सभी बादरसुहमेइंदी [(बादरसुहम)+(एअ)+ (इंदी)] [(बादर) वि-(सुहम) वि बादर, सूक्ष्म -(एअ) वि-(इंदि) 1/1] एक इन्द्रिय सव्वे (सव्व) 1/2 सवि *पज्जत्त (मूलशब्द) (पज्जत्त) 1/2 वि पर्याप्ति से युक्त इदरा (इदर) 1/2 वि विपरीत अव्यय और सभी अन्वय- पंचिंदिय समणा अमणा णेया परे सव्वे णिम्मणा बादरसुहमेइंदी सव्वे पज्जत्त य इदरा। ___ अर्थ- पाँच इन्द्रिय (जीव) मनवाले, (और) अमनवाले समझे जाने चाहिये। अन्य सभी (चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, दो इन्द्रिय) मन से रहित (होते हैं) (और) एक इन्द्रिय (जीव) बादर (और) सूक्ष्म (होते हैं)। सभी पर्याप्ति से युक्त और (इसके) विपरीत (अपर्याप्ति से युक्त होते हैं)। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (22) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया।। तह मग्गणगुणठाणेहि [(मग्गण)-(गुणठाण) 3/2] मार्गणास्थान, गुणस्थान से युक्त अव्यय और चउदसहि (चउदस) 3/2 वि चौदह हवंति (हव) व 3/2 अक होते हैं अव्यय पादपूर्ति असुद्धणया (असुद्धणय) 5/1 वि अशुद्धनय से विण्णेया (विण्णेय) विधिकृ 1/2 अनि समझे जाने चाहिये *संसारी (मूल शब्द) (संसारी) 1/2 वि संसारी सव्वे (सव्व) 1/2 सवि सभी सुद्धा (सुद्ध) 1/2 वि शुद्ध अव्यय परन्तु सुद्धणया (सुद्धणय) 5/1 शुद्धनय से अन्वय- असुद्धणया चउदसहि मग्गणगुणठाणेहि य संसारी हवंति तह हु सुद्धणया सव्वे सुद्धा विण्णेया। अर्थ- अशुद्धनय से चौदह मार्गणास्थान (अन्वेषण स्थान) और (चौदह) गुणस्थान (विकास स्थान) से युक्त (जीव) संसारी होते हैं, परन्तु शुद्धनय से सभी शुद्ध समझे जाने चाहिये। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) द्रव्यसंगत (23) For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. णिक्कम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता।। णिक्कम्मा अगुणा कर्मो से मुक्त आठ गुणवाले किंचूणा चरमदेहदो कुछ कम अंतिम शरीर से (णिक्कम्म) 1/2 वि {[(अट्ठ) वि-(गुण) 1/2] वि} (किंचूण) 1/2 वि [(चरम) वि-(देह) 5/1] पंचमी अर्थक ‘दो' प्रत्यय (सिद्ध) 1/2 वि [(लोय)+(अग्गठिदा)] [(लोय)-(अग्ग)(ठिद) भूक 1/2 अनि (णिच्च) 1/2 वि [(उप्पाद)-(वअ) 3/2] __ (संजुत्त) 1/2 वि सिद्ध सिद्धा लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता लोक के अग्रभाग में अवस्थित नित्य उत्पाद व्यय से संयुक्त अन्वय- णिक्कम्मा सिद्धा अट्टगुणा चरमदेहदो किंचूणा लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता। अर्थ- कर्मों से मुक्त सिद्ध आठ गुणवाले, अंतिम शरीर से कुछ कम, लोक के अग्रभाग में अवस्थित, नित्य, उत्पाद व्यय से संयुक्त (होते हैं)। (24) Jan Education International द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. अज्जीवो पुण णेओ पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं। कालो पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा दु॥ पुण अजीव (जीव के) विपरीत जाना जाना चाहिये पुद्गल, धर्म अधर्म आकाश काल अज्जीवो (अज्जीव) 1/1 अव्यय णेओ (णेअ) विधिकृ 1/1 अनि पुग्गलधम्मो [(पुग्गल)-(धम्म) 1/1] *अधम्म (मूल शब्द) (अधम्म) 1/1 आयासं (आयास) 1/1 कालो (काल) 1/1 *पुग्गल (मूल शब्द) (पुग्गल) 1/1 (मुत्त) 1/1 वि रूवादिगुणो [(रूव)+ (आदिगुणो)] {[(रूव)-(आदि) (गुण) 1/1] वि} *अमुत्ति (मूल शब्द)(अमुत्ति) 1/1 वि सेसा (सेस) 1/2 वि अव्यय पुद्गल मूर्तिक मुत्तो रूपादि गुणवाला अमूर्तिक शेष दु किन्तु अन्वय- पुण अज्जीवो पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं कालो णेओ पुग्गल रूवादिगुणो मुत्तो दु सेसा अमुत्ति। अर्थ- (जीव के) विपरीत अजीव (द्रव्य)-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश (और), काल जाना जाना चाहिये। पुद्गल रूपादिगुणवाला (होता है)(अतः)मूर्तिक (होता है) किन्तु शेष (धर्म, अधर्म, आकाश और काल) अमूर्तिक (होते हैं)। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) द्रव्यसंग्रह (25) For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. सद्दो बंधो सुमो थूलो संठाण भेद तम छाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ।। सो बंधो सुहुमो थूलो * संठाण (मूलशब्द) * भेद (मूलशब्द) *तम (मूलशब्द) छाया उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया (सद्द) 1 / 1 ( बंध) 1 / 1 (सुहुम) 1 / 1 वि (थूल) 1 / 1 वि (संठाण) 1 / 1 (भेद) 1/1 (तम) 1 / 1 (छाया) 1 / 1 [(उज्जोद) + (आदवसहिया ) ] [(उज्जोद) - (आदव) - ( सहिय) 1 / 2 वि] (26) Jam Education International [ ( पुग्गल ) - ( दव्व) 6 / 1] (पज्जाय) 1/2 शब्द बंध For Personal & Private Use Only सूक्ष्म स्थूल संस्थान भेद तम छाया उद्योत, आतप सहित अन्वय- सद्दो बंधो सुहुमो थूलो संठाण भेद तम छाया उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया । अर्थ - शब्द, बंध (बंधन), सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान (आकृति), भेद (टुकड़े-टुकड़े होना ), तम ( अंधकार ), छाया, उद्योत (प्रकाश), आतप (सूर्य, अग्नि आदि की गर्मी) सहित - ( ये सब ) पुद्गल द्रव्य की पर्यायें ( हैं ) । पुद्गल द्रव्य की पर्यायें प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) द्रव्यसंग्रह Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेई।। गइपरिणयाण गति में परिवर्तित के लिए [(गइ)-(परिणय) भूकृ 4/2 अनि (धम्म) 1/1 [(पुग्गल)-(जीव) 4/2] धम्मो धर्म पुग्गलजीवाण पुद्गल और जीवों के लिए गमन में सहकारी गमणसहयारी तोयं जल जैसे जह मच्छाणं अच्छंता [(गमण)-(सहयारि) 1/1 वि] (तोय) 1/1 अव्यय (मच्छ) 4/2 (अच्छ) वकृ 2/2 अव्यय (त) 1/1 सवि (णी) व 3/1 सक मछलियों के लिए ठहरती हुई को नहीं णेव वह णेई। गति कराना अन्वय- गइपरिणयाण पुग्गलजीवाण धम्मो गमणसहयारी जह मच्छाणं तोयं सो अच्छंता णेई णेव। अर्थ- गति में परिवर्तित पुद्गल और जीवों के लिए धर्म (द्रव्य) गमन में सहकारी (होता है) जैसे मछलियों के लिए जल। (किन्तु) वह (धर्म द्रव्य) ठहरती हुई (मछलियों) को गति नहीं कराता (अर्थात् गति में प्रेरक नहीं होता)। 1. छन्द की मात्रा हेतु 'इ' का 'ई' किया गया है। द्रव्यसंग्रह (27) For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी। छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई।। ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी छाया [(ठाण)-(जुद) भूक 4/2 स्थितियुक्त के लिए अनि] (ठहरे हुओं के लिए) (अधम्म) 1/1 अधर्म [(पुग्गल)-(जीव) 4/2] पुद्गल और जीवों के लिए [(ठाण)-(सहयारि)1/1 वि] स्थिति में सहकारी (छाया) 1/1 अव्यय (पहिय) 4/2 पथिकों के लिए (गच्छ) वकृ 2/2 चलते हुओं को अव्यय (त) 1/1 सवि (धर) व 3/1 सक ठहराता है छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव नहीं वह धरई। अन्वय- ठाणजुदाण पुग्गलजीवाण अधम्मो ठाणसहयारी जह पहियाणं छाया सो गच्छंता धरई णेव। अर्थ- स्थितियुक्त पुद्गल और जीवों के लिए (अर्थात् ठहरे हुओं के लिए) अधर्म (द्रव्य) स्थिति (ठहरने) में सहकारी होता है जैसे पथिकों के लिए छाया। (किन्तु) वह (अधर्म द्रव्य) चलते हुओं (पथिकों) को ठहराता नहीं है (अर्थात् ठहराने में प्रेरक नहीं होता)। 1. छन्द की मात्रा हेतु 'इ' का 'ई' किया गया है। (28) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं । जेण्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं । । अवगासदाणजोगं जीवादीणं वियाण आयासं जेहं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं [ ( अवगास) - (दाण) - (जोग्ग) 1 / 1 वि] [(जीव) + (आदीणं)] [(जीव) - (आदि) 4 / 2] द्रव्यसंग्रह = अवकाश (जगह) देने में योग्य (समर्थ) (वियाण) विधि 2 / 1 सक ( आयास) 2 / 1 जे (अ) हं (अ) = (लोगागास) 1 / 1 [(अल्लोगागासं) + (इदि) ] अल्लोगागासं (अल्लोगागास)1/1 अलोकाकाश इदि (अ) = और (दुविह) 1 / 1 वि जीव आदि (द्रव्यों) के लिए जानो For Personal & Private Use Only आकाश को पादपूर्ति वाक्यालंकार लोकाकाश अन्वय- जीवादीणं अवगासदाणजोग्गं आयासं वियाण जेन्हं दुविहं लोगागास अल्लोगागासमिदि । अर्थ- (जो) जीव आदि (द्रव्यों) के लिए अवकाश ( जगह) देने में योग्य (समर्थ) (है) (उस) आकाश (द्रव्य) को जानो । ( वह) (आकाश द्रव्य) दो प्रकार का है- लोकाकाश और अलोकाकाश। और दो प्रकार का (29) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये। आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो।। धम्माधम्मा धर्म, अधर्म काल कालो पुग्गलजीवा संति जावदिये आयासे [(धम्म)+(अधम्मा)] [(धम्म)-(अधम्म) 1/2] (काल)1/1 [(पुग्गल)-(जीव) 1/2] अव्यय (अस) व 3/2 अक (जावदिय) 7/1 वि (आयास) 7/1 (त) 1/1 सवि (लोग) 1/1 अव्यय अव्यय [(अलोग)+ (उत्तो)] (अलोग) 1/1 (उत्त) भूक 1/1 अनि पुद्गल, जीव और रहते हैं जितने आकाश में वह लोक इसलिए दूसरी तरफ लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो अलोक कहा गया है अन्वय- धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य जावदिये आयासे संति सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो। अर्थ- धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव (द्रव्य) जितने आकाश में रहते हैं वह लोक (लोकाकाश) (है)। इसलिए दूसरी तरफ अलोक (अलोकाकाश) कहा गया है। (30) Jail Education International द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. दव्वपरिवरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादी लक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो।। दव्वपरिवरूवो 4, सो कालो हवेइ [(दव्व)-(परिवट्ट)- द्रव्य के बदलाव से (रूव) 1/1 वि] (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि वह (काल) 1/1 काल (हव) व 3/1 अक होता है (ववहार) 1/1 [(परिणाम)+ (आदी)] [(परिणाम)-(आदि) 1/1] परिवर्तन आदि (लक्ख) विधिकृ 1/1 अनि पहचानने योग्य [(वट्टण)-(लक्ख) 1/1 वि] परिवर्तन का प्रकाशक अव्यय परन्तु (परमट्ठ) 1/1 परमार्थ (काल) ववहारो परिणामादी व्यवहार लक्खो वट्टणलक्खो परमट्ठो अन्वय- जो लक्खो दव्वपरिवट्टरूवो परिणामादी सो ववहारो कालो हवेइ य वट्टणलक्खो परमट्ठो। अर्थ- जो पहिचानने योग्य द्रव्य के बदलाव से युक्त परिवर्तन आदि होता है वह व्यवहार काल (है) परन्तु परिवर्तन का प्रकाशक परमार्थ (काल) (होता है)। (परिवर्तन 'समय' में होता है अतः उसका प्रकाशक काल द्रव्य ही परमार्थ काल है)। द्रव्यसंग्रह (31) For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि।। लोयायासपदेसे [(लोयायास)-(पदेस) 7/1] लोकाकाश के प्रदेश पर इक्किक्के ठिया एक-एक जो . स्थित निश्चय ही एक-एक रत्नों के इक्किक्का रयणाणं (इक्किक्क) 7/1 वि (ज) 1/2 सवि (ठिय) भूकृ 1/2 अनि अव्यय (इक्किक्क) 1/2 वि (रयण) 6/2 (रासि) 1/1 अव्यय (त) 1/2 सवि (कालाणु) 1/2 [(असंख) वि-(दव्व) 1/2] रासी इव समान कालाणू असंखदव्वाणि कालाणु असंख्यात द्रव्य अन्वय- लोयायासपदेसे इक्किक्के जे इक्किक्का कालाणू ठिया ते रयणाणं रासी इव हु असंखदव्वाणि। अर्थ- लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जो एक-एक कालाणु स्थित हैं वे (कालाणु) रत्नों के ढेर के समान निश्चय ही असंख्यात द्रव्य (हैं)। (32) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. एवं छन्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं। उत्तं कालविजुत्तं णादव्वा पंच अत्थिकाया दु।। इस प्रकार छह प्रकार यह जीव, अजीव के भेद अव्यय छब्भेयमिदं [(छब्भेयं)+ (इद)] छब्भेयं (छब्भेय) 1/1 इदं (इम) 1/1 सवि जीवाजीवप्पभेददो [(जीव)+ (अजीवप्पभेद)] [(जीव)-(अजीव)(प्पभेद) 5/1] पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (दव्व) 1/1 (उत्त) भूकृ 1/1 अनि कालविजुत्तं [(काल)-(विजुत्त) भूकृ 1/1 अनि] णादव्वा (णा) विधिकृ 1/2 पंच (पंच) 1/2 वि अत्थिकाया (अत्थिकाय) 1/2 अव्यय दव्वं उत्तं द्रव्य कहा गया है काल (द्रव्य) से रहित समझे जाने चाहिये पाँच अस्तिकाय परन्तु दु अन्वय- एवं इदं दव्वं जीवाजीवप्पभेददो छब्भेयं उत्तं दु कालविजुत्तं पंच अत्थिकाया णादव्वा। अर्थ- इस प्रकार यह द्रव्य- जीव, अजीव के भेद से छह प्रकार (का) कहा गया है। परन्तु काल (द्रव्य) से रहित पाँच अस्तिकाय समझे जाने चाहिये। द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only www.jainelibr(33) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. संति जदो तेणेदे अत्थित्ति भणंति जिणवरा जम्हा। काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य।। संति विद्यमान हैं चूँकि जदो तेणेदे इसलिए अत्थित्ति अस्ति कहते हैं (अस) व 3/2 अक अव्यय [(तेण)+ (एदे)] तेण (अ) = इसलिए एदे (एद) 1/2 सवि [(अत्थि )+(इति)] अत्थि (अ) = अस्ति इति (अ) = ही (भण) व 3/2 सक (जिणवर) 1/2 अव्यय (काया) 1/1 अव्यय (बहुदेस) 1/2 वि अव्यय (काय) 1/2 अव्यय (अत्थिकाय) 1/2 अव्यय भणंति जिणवरा जम्हा काया इव बहुदेसा तम्हा काया जिनवर चूँकि की तरह बहुत प्रदेशी इसलिये काय अत्थिकाया अस्तिकाय और अन्वय- जदो एदे संति तेण जिणवरा अत्थित्ति भणंति जम्हा काया इव बहदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य। अर्थ- चूँकि ये (द्रव्य) विद्यमान हैं इसलिए जिनवर (इनको) 'अस्ति' ही कहते हैं। चूँकि (ये द्रव्य) देह की तरह बहुत प्रदेशी (है) इसलिये 'काय' भी (कहे जाते हैं)। और (ये द्रव्य अस्ति और काय संयुक्तरूप से) अस्तिकाय (कहे गये हैं)। Education International For Personal & Private Use Only www,द्रव्यसग्रह Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे अनंत आयासे । मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ।। होंति असंखा जीवे धमाधम्मे * अणंत (मूल आयासे शब्द) (अणंत) 1/2 (आयास) 7/1 (मुत्त) 7 / 1 वि मुत्ते * तिविह (मूल शब्द ) (तिविह) 1 / 2 वि पदेसा (पदेस) 1/2 [(कालस्स) + (एगो)] कालस्सेगो कालस्स (काल) 16/1 एगो (ग) 1 / 1 वि अव्यय ण तेण सो काओ ** (हो) व 3 / 2 अक (असंख) 1/2 वि (जीव) 7/1 [(धम्म) + (अधम्मे ) ] [ ( धम्म ) - (अधम्म) 7 / 1] 1. अव्यय (त) 1 / 1 सवि (137) 1/1 द्रव्यसंग्रह होते हैं असंख्यात जीव में धर्म और अधर्म में अनंत अन्वय- जीवे धम्माधम्मे असंखा पदेसा होंति आयासे अणंत मुत्ते तिविह कालस्सेगो तेण सो काओ ण । अर्थ - जीव (द्रव्य) में, धर्म तथा अधर्म (द्रव्य) में असंख्यात प्रदेश होते हैं। आकाश में अनंत (प्रदेश होते हैं)। मूर्त (पुद्गल) में तीन प्रकार के ( संख्यात, असंख्यात, अनंत प्रदेश) (होते हैं)। काल का / में एक (प्रदेश होता है)। इसलिए वह 'काय' नहीं है। आकाश में मूर्त में तीन प्रकार के प्रदेश For Personal & Private Use Only एक नहीं इसलिए वह काय कालका/में में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। प्राकृत (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) (35) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि। ___ बहदेसो उवयारा तेण य काओ भणंति सव्वण्ह।। होदि एयपदेसो {[(एय)-(पदेस) 1/1] वि} एक प्रदेश अव्यय अणू . (अणु) 1/1 परमाणु णाणाखंधप्पदेसदो [(णाणा) वि-(खंध)- अनेक स्कंध प्रदेश से (प्पदेस) 5/1] पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (हो) व 3/1 अक होता है । बहुदेसो (बहुदेस) 1/1 वि बहुत प्रदेशी उवयारा (उवयार) 5/1 व्यवहार से अव्यय इसलिये अव्यय पादपूर्ति (काअ) 1/1 काय भणंति (भण) व 3/2 सक कहते हैं *सव्वण्हु (मूल शब्द)(सव्वण्हु) 1/ वि सर्वज्ञ देव तेण य काओ अन्वय- एयपदेसो अणू वि णाणाखंधप्पदेसदो बहुदेसो होदि तेण य सव्वण्ह उवयारा काओ भणंति ।। अर्थ- एक प्रदेश (पुद्गल) परमाणु भी अनेक स्कंध प्रदेश से बहुत प्रदेशी होता है। इसलिये सर्वज्ञ देव व्यवहार से (परमाणु को) काय कहते हैं। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) Ahl Jalutation International For Personal & Private Use Only द्रव्यसग्रह Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुवट्टीदं'। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिहं।। il. जावदियं (जावदिय) 1/1 वि जितना आया (अयास) 1/1 आकाश अविभागी- [(अविभागीपुग्गल)+(अणुवट्टीदं)] पुग्गलाणुवट्टीदं [(अविभागी) वि-(पुग्गल) अविभागी पुद्गल (अणु)-(वट्ट--वट्टिदं→वट्टीदं) परमाणु द्वारा भूकृ 1/1] आच्छादित (त) 2/1 सवि उसको अव्यय निश्चय ही पदेसं (पदेस)/1 प्रदेश जाणे (जाण) विधि 2/1 सक जानो सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं [(सव्व)+(अणुट्ठाणदाण)+ (अरिहं)] [(सव्व)-(अणु)-(ट्ठाण)- सब अणुओं को (दाण)-(अरिह) ५/1 वि] स्थान देने में योग्य 66 अन्वय- जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुवट्टीदं तं खु सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं पदेसं जाणे। अर्थ- जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु द्वारा आच्छादित (है) उसे निश्चय ही सब अणुओं को स्थान देने में योग्य प्रदेश जानो। उठ्ठद्धं के स्थान पर वट्टीदं (वट्टिदं-वट्टीद) पाठ होना चाहिए। छंद की मात्रा के लिये यहाँ दीर्घ किया गया है। पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 679 2. द्रव्यसंग्रह (37) For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अधिकार (सात तत्त्व, नव पदार्थ का निरूपण) For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. * आसव (मूल शब्द) (आसव) 1/1 * बंधण (मूल शब्द ) * संवर (मूल शब्द ) णिज्जर' मोक्खो सपुण्णपावा जे जीवाजीवविसेसा to do वि आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपावा जे। जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो ॥ समासे 2 पभणामो ** 1. 2. ( बंधण) 1 / 1 ( संवर) 1 / 1 ( णिज्जरा ) 1 / 1 द्रव्यसंग्रह ( मोक्ख) 1 / 1 [(स) वि- (पुण्ण ) - (पाव) 1 / 2 ] (ज) 1/2 सवि [(जीव) + (अजीवविसेसा ) ] [(जीव) - (अजीव) - (विसेस) 1 / 2 ] (त) 2 / 2 सवि अव्यय (समास) 3 / 1 ( पभण) व 1 / 2 सक अन्वय- सपुण्णपावा आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो जे जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो । अर्थ- पुण्य-पाप सहित आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा (और) मोक्ष जो (पदार्थ) जीव और अजीव (द्रव्य) के भेद ( हैं ), उनको भी (हम) संक्षेप में कहते हैं। आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष पुण्य-पाप सहित जो For Personal & Private Use Only जीव और अजीव (द्रव्य) के भेद उनको भी संक्षेप में कहते हैं प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) छंद की मात्रा की सुविधा के अनुसार दीर्घ स्वर को ह्रस्व किया गया है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 182 ) सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग। (39) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेओ। भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि।। आसवदि जेण कम्म परिणामणप्पणो विण्णेओ भावासवो जिणुत्तो (आसव) व 3/1 सक प्रवेश मिलता है (ज) 3/1 सवि जिससे (कम्म) 2/1 कर्म को [(परिणामेण) + (अप्पणो)] परिणामेण (परिणाम) 3/1. भाव से अप्पणो (अप्प) 6/1 आत्मा के (त) 1/1 सवि वह (विण्णेअ) विधिकृ 1/1 अनि समझा जाना चाहिये (भावासव) 1/1 [(जिण)+ (उत्तो)] [(जिण)-(उत्त) भूक 1/1 जिनेन्द्र के द्वारा अनि] कहा हुआ [(कम्म)+(आसवणं)] [(कम्म)-(आसवण) 1/1] द्रव्यकर्म का प्रवेश (पर) 1/1 वि (हो) व 3/1 अक होता है भावास्रव कम्मासवणं भिन्न परो होदि अन्वय- परिणामणप्पणो जेण कम्मं आसवदि स जिणुत्तो भावासवो विण्णेओ कम्मासवणं परो होदि। अर्थ-आत्मा के जिस भाव से कर्म को प्रवेश मिलता है वह जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ भावास्रव समझा जाना चाहिये। (जो) द्रव्यकर्म का प्रवेश (द्रव्यास्रव) होता है (वह) भिन्न (है)। (40) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. विण्या पण पण जोगकोधादओऽथ मिच्छत्ताविरदिपमाद - [ (मिच्छत्त) + (अविरदिपमादजोगकोध) + (आदओ) + (अथ)] मिच्छत्ताविरदिपमाद - [ (मिच्छत्त) - (अविरदि) - जोगकोधादओऽथ ( पमाद) - ( जोग) - (कोध ) - (आदि) 1/2 ] अथ (अ) = अब अब ( विण्य) विधिक 1/2 अनि समझे जाने चाहिये (पण) 1/2 वि पाँच (पण) 1/2 वि पाँच पणदस ) *तिय (मूल शब्द *चदु (मूल शब्द ) मो भेदा मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओऽथ पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स * विष्णेया । दु पुव्वस्स ।। ( चदु) 1/2 वि अव्यय (भेद) 1/2 अव्यय (पुव्व) 6 / 1 वि द्रव्यसंग्रह ( पणदस) 1/2 वि पन्द्रह ( तिय) 1 / 2 वि 'य' स्वार्थिक तीन मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, योग, क्रोध (कषाय) आदि अन्वय- अथ पुव्वस्स मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ भेदा विष्णेया कमसो पण पण पणदस तिय दु चदु । अर्थ- अब पहले (भावास्रव) के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग, क्रोध ( कषाय) आदि भेद समझे जाने चाहिये। (वे) (मिथ्यात्व आदि) क्रम से पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार ( हैं ) । For Personal & Private Use Only चार क्रम से भेद और पहले के प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 ) (41) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो । णाणावरणादीणं [(णाणावरण)+ (आदीणं)] [(णाणावरण)-(आदि) 6/2] ज्ञानावरणादि (कर्मों) जोग्गं जो पुग्गलं समासवदि (जोग्ग) 1/1 वि योग्य (ज) 1/1 सवि (पुगल) 1/1 पुद्गल [(सम)+(आसव)] सम (अ) = साथ-साथ साथ-साथ (आसव) व 3/1 अक आता है (दव्वासव) 1/1 द्रव्यास्रव (त) 1/1 सवि वह (णेअ) विधिकृ 1/1 अनि समझा जाना चाहिये {[(अणेय)-(भेअ)1/1] वि} अनेक भेदवाला [(जिण)-(अक्खाद) जिनेन्द्रदेव के द्वारा भूकृ 1/1 अनि] कहा गया है दव्वासवो णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो अन्वय- णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि स दव्वासवो णेओ जिणक्खादो अणेयभेओ। अर्थ- ज्ञानावरणादि (कर्मों) के योग्य जो पुद्गल (भाव के) साथ-साथ आता है, वह द्रव्यास्रव समझा जाना चाहिये। (वह) जिनेन्द्रदेव के द्वारा अनेक भेदवाला कहा गया है। (42) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. बज्झदि कम्मं जेण द चेदणभावेण भावबंधो सो । कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो ।। बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो कम्मादपदेसणं अण्णोण्णपवेसणं इरो ( बज्झ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि बांधा जाता है कर्म जिससे और द्रव्यसंग्रह (कम्म) 1 / 1 (ज) 3 / 1 सवि अव्यय [ ( चेदण) - (भाव) 3 / 1] ( भावबंध) 1/1 (त) 1 / 1 सवि [(कम्म) + (आदपदेसाणं ) ] [(कम्म) - (आद) - (पदेस) 6/2] [(अण्णोण्ण) वि - (पवेसण ) 1/1] (इदर) 1 / 1 वि आत्मभाव (राग द्वेषादि) से भावबंध वह अन्वय- जेण चेदणभावेण कम्मं बज्झदि सो भावबंधो दु कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो । अर्थ- जिस आत्मभाव ( राग-द्वेषादि भाव) से कर्म बांधा जाता है वह भावबंध है और कर्म तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर / आपस में प्रवेश ( वह ) अन्य (द्रव्यबंध है)। For Personal & Private Use Only कर्म तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर / आपस में प्रवेश अन्य (43) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो। जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति।। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश भेद से और पयडिडिदिअणुभाग- [(पयडि)-(ट्ठिदि)प्पदेसभेदा (अणुभाग)-(प्पदेस) (भेद) 5/1] अव्यय चदुविधो (चदुविध) 1/1 वि बंधो (बंध) 1/1 (जोग) 5/1 पयडिपदेसा [(पयडि)-(पदेस) जोगा चार प्रकार का बंध योग से प्रकृति और प्रदेश 1/2] ठिदिअणुभागा स्थिति और अनुभाग कसायदो [(ठिदि)-(अणुभाग) 1/2] (कसाय) 5/1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (हो) व 3/2 अक कषाय से होंति होते हैं अन्वय- पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदा बंधो चदुविधो जोगा पयडिपदेसा दु कसायदो ठिदिअणुभागा होंति। अर्थ- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेद से बंध चार प्रकार का (है)। योग से प्रकृति और प्रदेश (बंध होते हैं) और कषाय से स्थिति और अनुभाग (बंध) होते हैं। (44) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू। सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो।। चेदणपरिणामो कम्मस्सासवणिरोहणे हे [(चेदण)-(परिणाम) 1/1] आत्मा का भाव (ज) 1/1 सवि [(कम्मस्स)+(आसवणिरोहणे)] कम्मस्स (कम्म) 6/1 कर्म के [(आसव)-(णिरोहण) 7/1] आस्रव को रोकने में (हेदु) 1/1 कारण (त) 1/1 सवि (भावसंवर) 1/1 भावसंवर अव्यय अतः [(दव्व)+(आसवरोहणे)] [(दव्व)-(आसव) द्रव्यास्रव को -(रोहण) 7/1] रोकने में (अण्ण) 1/1 सवि दूसरा वह भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो अन्वय- चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो खलु भावसंवरो दव्वासवरोहणे अण्णो। अर्थ- आत्मा का भाव जो कर्म के आस्रव को रोकने में कारण (है) वह भावसंवर (है)। (वह) द्रव्यास्रव को रोकने में (भी) (कारण) (होता है)। अतः दूसरा (द्रव्यसंवर) (है)। द्रव्यसंग्रह (45) For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य। चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा।। वदसमिदीगुत्तीओ व्रत-समिति-गुप्ति धम्माणुपेहा [(वद)-(समिदि)(गुत्ति) 1/2] [(धम्म)-(अणुपेहा) 1/2] (परीसहजअ) 1/1 धर्म-अनुप्रेक्षा परीसहजओ परीषह को जीतना अव्यय और चारित्तं चारित्र बहुभेया णायव्वा (चारित्त) 1/1 (बहुभेय) 1/2 वि (णा) विधिकृ 1/2 [(भाव)-(संवर) -(विसेस) 1/2] बहुत भेदवाले समझे जाने चाहिये भावसंवर के भेद भावसंवरविसेसा अन्वय- वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य चारित्तं बहुभेया भावसंवरविसेसा णायव्वा। अर्थ-व्रत-समिति-गुप्ति-धर्म-अनुप्रेक्षा-परीषह को जीतना और चारित्र(ये सब) बहुत भेदवाले भावसंवर के भेद समझे जाने चाहिये। (46) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा।। भुत्तरसं जेण जह कालेण अव्यय उचित समय आने पर तवेण (तव) 3/1 तप द्वारा अव्यय और [(भुत्त) भूक अनि-(रस) 1/1] भोगा हुआ रस कम्मपुग्गलं [(कम्म)-(पुग्गल) 1/1] कर्म पुद्गल (ज) 3/1 सवि जिससे भावेण (भाव) 3/1 भाव से सडदि (सड) व 3/1 अक विलीन हो जाता है णेया (णेय) विधिकृ 1/1 अनि समझी जानी चाहिये तस्सडणं (तस्सडण) 1/1 उसका नष्ट चेदि [(च)+ (इदि)] च (अ) = और और इदि (अ) = अतः अतः *णिज्जरा(मूलशब्द) (णिज्जरा) 1/1 निर्जरा (दुविह) 1/2 वि दो प्रकार की दुविहा अन्वय- जेण भावेण भुत्तरसं सडदि य जह कालेण च तवेण कम्मपुग्गलं तस्सडणं इदि णिज्जरा दुविहा णेया। अर्थ- (आत्मा के) जिस (वीतराग) भाव से (मिथ्यात्व अवस्था में) भोगा हुआ रस विलीन हो जाता है (वह) (भावनिर्जरा) (है) और उचित समय आने पर और तप द्वारा उस (आत्मा) का कर्मपुद्गल नष्ट (होता है) (वह) (द्रव्यनिर्जरा) (है)। अतः निर्जरा दो प्रकार की समझी जानी चाहिये। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) द्रव्यसग्रह Jan Education International For Personal & Private Use Only (47) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो। णेयो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ।। समस्त सव्वस्स कम्मणो कर्म के नाश का कारण खयहेदू अप्पणो परिणामो (सव्व) 6/1 सवि (कम्म) 6/1 (ज) 1/1 सवि [(खय)-(हेदु) 1/1] (अप्प) 6/1 अव्यय (परिणाम) 1/1 (णेय) विधिकृ 1/1 अनि (त) 1/1 सवि [(भाव)-(मुक्ख) 1/1] [(दव्व)-(विमुक्ख) 1/1] अव्यय [(कम्म)-(पुह) वि(भाव) 1/1] णेयो आत्मा का निश्चय ही परिणाम समझा जाना चाहिये वह भावमोक्ष द्रव्यमोक्ष और कर्म की पृथक भावमुक्खो दव्वविमुक्खो कम्मपुहभावो अवस्था अन्वय- सव्वस्स कम्मणो खयहेदू जो अप्पणो परिणामो स हु भावमुक्खो णेयो य कम्मपुहभावो दव्वविमुक्खो। अर्थ- समस्त कर्म के नाश का कारण जो आत्मा का परिणाम (है) वह निश्चय ही भावमोक्ष समझा जाना चाहिये और (द्रव्य) कर्म की (आत्मा से) पृथक अवस्था द्रव्यमोक्ष (है)। (48) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च ।। पुण्णं जीवा सादं सुहअसुहभावजुत्ता [(सुह) वि-(असुह) वि- शुभ और अशुभ (भाव)-(जुत्त) भूक 1/2 अनि भावों से युक्त (पुण्ण) 1/1 वि पुण्यरूप पावं (पाव) 1/1 वि पापरूप हवंति (हव) व 3/2 अक होते हैं खलु अव्यय निश्चय ही (जीव) 1/2 जीव (साद) 1/1 साता वेदनीय *सुहाउ (मूलशब्द) [(सुह) वि-(आउ) 1/1] शुभ आयु (णाम) 1/1 नाम (गोद) 1/1 गोत्र पुण्णं (पुण्ण) 1/1 वि पुण्यरूप पराणि (पर) 1/2 वि अन्य (कम्माणि) पावं (पाव) 1/1 वि पापरूप अव्यय और णाम गोदं अन्वय- सुहअसुहभावजुत्ता जीवा खलु पुण्णं पावं हवंति सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं च पराणि पावं। अर्थ- शुभ और अशुभ भावों से युक्त जीव निश्चय ही पुण्यरूप (और) पापरूप होते हैं। सातावेदनीय (कर्म), शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र पुण्यरूप (कर्म हैं) और अन्य पापरूप (कर्म हैं)। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) द्रव्यसंग्रह (49) For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अधिकार ( मोक्षमार्ग का निरूपण) For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. सम्मदंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा ।। सम्मदंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे' ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा [ ( सम्मदंसण) - ( णाण) 2/1] द्रव्यसंग्रह (चरण) 2 / 1 ( मोक्ख ) 6 / 1 (कारण) 1 / 1 (जाण) विधि 2 / 1 सक (ववहार) 5 / 1 ( णिच्छय) 5/1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय [(त) सवि - (त्तियमइअ ) 1/1 fa] ( णिअ) 1 / 1 वि ( अप्प ) 1 / 1 सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान For Personal & Private Use Only सम्यक्चारित्र को मोक्ष का कारण जानो व्यवहार (नय) से निश्चय (नय) से उन तीन के समूहयुक्त अन्वय- ववहारा सम्मद्दंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा । अर्थ - व्यवहार (नय) से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान (और) सम्यक्चारित्र को मोक्ष का कारण जानो । निश्चय (नय) से उन तीन (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) के समूहयुक्त अपनी आत्मा (मोक्ष का कारण ) ( है ) । 1. पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 679 अपनी आत्मा (51) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि। तम्हा तत्तियमइओ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा।। रयणत्तयं वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि तम्हा तत्तियमइओ (रयणत्तय) 1/1 रत्नत्रय अव्यय नहीं (वट्ट) व 3/1 अक विद्यमान होता है (अप्पाण) 2/1 आत्मा को (मुअ) संकृ छोड़कर [(अण्ण) सवि - (दविय) ___अन्य द्रव्य में 7/1] अव्यय इसलिए [(त) सवि-(त्तियमइअ) उन तीन के समूह1/1 वि] (हो) व 3/1 अक होता है अव्यय निश्चय ही (मुक्ख) 6/1 मोक्ष का (कारण) 1/1 (आद) 1/1 आत्मा युक्त होदि मुक्खस्स कारणं कारण आदा अन्वय- अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि रयणत्तयं ण वट्टइ तम्हा हु तत्तियमइओ आदा मुक्खस्स कारणं होदि। ___ अर्थ- आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय विद्यमान नहीं होता। इसलिए निश्चय ही उन तीन के समूहयुक्त (रत्नत्रययुक्त) आत्मा मोक्ष का कारण होता है। (52)cation International For Personal & Private Use Only www.द्रव्यसग्रह Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु। दरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि।। जीवादि पर श्रद्धा सम्यक्त्व सम्मत्तं स्वरूप आत्मा का वह जीवादी [(जीव)+(आदी)] [(जीव)-(आदि) 2/2] सद्दहणं (सद्दहण) 1/1 (सम्मत्त) 1/1 रूवमप्पणो [(रूवं)+ (अप्पणो)] रूवं (रूव) 1/1 अप्पणो (अप्प) 6/1 (त) 1/1 सवि अव्यय दुरभिणिवेसविमुक्कं [(दुरभिणिवेस) (विमुक्क) भूकृ 1/1 अनि] णाणं (णाण) 1/1 (सम्म) 1/1 वि अव्यय (हो) व 3/1 अक सदि (सदि) 7/1 अनि जम्हि (ज) 7/1 सवि तार्किक दोष से रहित ज्ञान सम्यक होदि होता है विद्यमान होने पर जिसमें अन्वय- जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं तं रूवमप्पणो तु जम्हि सदि दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं खु सम्मं होदि। ____ अर्थ- जीवादि पर श्रद्धा सम्यक्त्व (है)। वह (सम्यक्त्व) आत्मा का स्वरूप ही (है)। जिसके (सम्यक्त्व के) विद्यमान होने पर तार्किक दोष से रहित ज्ञान भी सम्यक् (अध्यात्म दृष्टिवाला) हो जाता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) द्रव्यसंग्रह (53) For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।। संशय, मोह, भ्रम-रहित आत्मा , पर के स्वरूप का संसयविमोह [(संसय)-(विमोह)विब्भमविवज्जियं (विब्भम)-(विवज्जिय) भूकृ 1/1 अनि] अप्पपरसरूवस्स [(अप्प)-(पर) वि (सरूव) 6/1] (गहण) 1/1 सम्मण्णाणं (सम्मण्णाण) 1/1 सायारमणेयभेयं [(सायारं)+ (अणेयभेयं)] सायारं (सायार) 1/1 वि {[(अणेय) वि(भेय) 1/1] वि} गहणं ज्ञान सम्यकज्ञान साकार और अनेक भेदवाला अव्यय और अन्वय- अप्पपरसरूवस्स संसयविमोहविब्भमविवज्जियं गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु। अर्थ- आत्मा (और) पर के स्वरूप का संशय (स्व-पर भेद में संदेह) रहित, मोह (स्व में मूर्छा) रहित, भ्रम (पर में तादात्म्य) रहित ज्ञान सम्यक्ज्ञान (है), (वह सम्यक्ज्ञान) साकार (विकल्पात्मक) और अनेक भेदवाला (है)। (54) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं। अविसेसिदण अटे दंसणमिदि भण्णए समए।। सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं (ज) 1/1 सवि (सामण्ण) 1/1 वि केवल होनारूप (गहण) 1/1 भान (भाव) 6/2 पदार्थों का अव्यय न ही [(कटुं)+ (आयारं)] कटुं' (अ) = करके करके आयारं (आयार) 2/1 निश्चय (विकल्प) (अ-विसेस) संकृ न भेद करके (अट्ठ) 2/2 पदार्थों में [(दंसणं) + (इदि)] दंसणं (दंसण) 1/1 इदि (अ) = निश्चयपूर्वक निश्चयपूर्वक (भण्णए)व कर्म 3/1 सक अनि कहा जाता है (समअ) 7/1 आगम में अविसेसिदूण दसणमिदि दर्शन भण्णए समए अन्वय- अढे अविसेसिदूण णेव कटुमायारं भावाणं जं सामण्णं गहणं समए दंसणमिदि भण्णए। अर्थ- पदार्थों में न (आपस में) भेद करके, न ही (कोई) निश्चय (विकल्प) करके (उन) पदार्थों का जो केवल होनारूप भान (है) (वह) आगम में निश्चयपूर्वक दर्शन कहा जाता है। अनुस्वार का आगम हुआ है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 1-26) कभी-कभी द्वितीया का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-135) 2. द्रव्यसंग्रह (55) For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा। जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि।। दर्शन पुव्वं णाणं प्रारंभ में ज्ञान छदमस्थों के नहीं . *दंसण- (मूलशब्द) (दंसण) 1/1 पुव्वं (अ) = प्रारंभ में (णाण) 1/1 छदमत्थाणं (छदमत्थ) 6/2 वि अव्यय दोणि (दो) 1/2 वि उवउग्गा (उवउग्ग) 1/2 जुगवं अव्यय जम्हा अव्यय केवलिणाहे [(केवलि) वि-(णाह) 7/1] अव्यय अव्यय (त) 1/2 सवि दोवि (दोवि) 1/2 वि उपयोग एक साथ क्योंकि केवली भगवान में जुगवं एक साथ परन्तु AC दोनों अन्वय- छदमत्थाणं दंसणपुव्वं णाणं जम्हा दोण्णि उवउग्गा जुगवं ण तु केवलिणाहे ते दोवि जुगवं। अर्थ- छदमस्थों के (स-रागियों के) प्रारंभ में दर्शन (होता है) (फिर) ज्ञान क्योंकि (उनके) दो उपयोग (दर्शन और ज्ञान) एक साथ नहीं (होते हैं)। परन्तु केवली भगवान में वे (दर्शन और ज्ञान) दोनों एक साथ (होते हैं)। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (56) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं । । असुहा विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु भिणियं Խո (असुह) 5 / 1 वि (विणिवित्ति) 1 / 1 (सुह) 7 / 1 वि (ufafa) 1/1 अव्यय (जाण) विधि 2 / 1 सक (चारित) 1 / 1 [(वद) - (समिदि) - (गुत्ति) - ( रूव) 1 / 1 वि] (ववहारणय) 5 / 1 द्रव्यसंग्रह अव्यय [(जिण) - (भण भणिय) भूकृ 1 / 1 सक] → अशुभ से निवृत्ति शुभ में प्रवृत्ति और समझो चारित्र व्रत, समिति और गुप्त से युक्त व्यवहारनय से अन्वय- असुहादो विणिवित्तीय सुहे पवित्ती ववहारणया दु For Personal & Private Use Only निश्चय ही जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया है चारित्तं जाण वदसमिदिगुत्तिरूवं जिणभणियं । अर्थ - अशुभ (भाव) से निवृत्ति और शुभ (भाव) में प्रवृत्ति व्यवहारनय से निश्चय ही चारित्र ( है ) (तुम) समझो। (वह चारित्र) व्रत, समिति और गुप्ति से युक्त (होता है)। जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा गया है। (57) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. बहिरब्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासटुं। णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्पचारित्त।। बाह्य और अंतरंग क्रियाओं का निरोध संसार के कारणों का विनाश करने के लिए ज्ञानी के बहिरब्भंतर- [(बहिर) वि-(अब्भंतर) वि किरियारोहो -(किरिया)-(रोह) 1/1] *भवकारण(मूलशब्द) [(भव)-(कारण) 6/2] -प्पणासढें (प्पणास8) क्रिविअ णाणिस्स (णाणी) 6/1 वि (ज) 1/1 सवि [(जिण) + (उत्तं)] [(जिण)-(उत्त) भूकृ 1/1 अनि (त) 1/1 सवि परमं (परम) 1/1 वि सम्मचारित्तं [(सम्म)-(चारित्त) 1/1] जिणुत्तं जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया है । वह उत्कृष्ट सम्यक् चारित्र अन्वय- भवकारणप्पणासलृ णाणिस्स बहिरब्भंतरकिरियारोहो तं परमं सम्मचारित्तं जं जिणुत्तं। अर्थ- संसार के कारणों का विनाश करने के लिए ज्ञानी के बाह्य (शुभअशुभात्मक) और अंतरंग (विकल्पात्मक) क्रियाओं का निरोध (होता है) वह उत्कृष्ट सम्यक् चारित्र (है) जो जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया है। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) 1. चतुर्थी के अर्थ में अह्र अव्यय का प्रयोग हुआ है। (58) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह।। दुविहं दो प्रकार के मोक्खहेडं झाणे (दुविह) 2/1 वि अव्यय [(मोक्ख)-(हेउ) 2/1] (झाण) 7/1 (पाउण) व 3/1 सक अव्यय (मुणि) 1/1 (णियम) 5/1 अव्यय [(पयत्त) वि-(चित्त) 5/1] मोक्ष के कारण को ध्यान द्वारा प्राप्त करते हैं चूँकि पाउणदि मुनि मुणी णियमा तम्हा पयत्तचित्ता नियम से इसलिए अनवरत प्रयास-सहित चित्त से तुम सब ध्यान का जूयं झाणं समब्भसह (जूयं) 1/2 सवि अनि (झाण) 2/1 [(सम)+(अब्भसह)] सम (अ) = खूब अब्भसह (अब्भस) विधि 2/2 सक खूब अभ्यास करो अन्वय- जं झाणे मुणी णियमा दुविहं मोक्खहेउं पाउणदि तम्हा जूयं पि पयत्तचित्ता झाणं समब्भसह। अर्थ- चूँकि ध्यान द्वारा मुनि नियम से दो प्रकार के (निश्चय और व्यवहार रूप) मोक्ष के कारण को प्राप्त करते हैं। इसलिए तुम सब भी अनवरत प्रयास- सहित चित्त से ध्यान का खूब अभ्यास करो। स 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है (हे.प्रा.व्या. 3-135) द्रव्य संग्रह International For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्ठणि?अट्टेसु। थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए।। मुज्झह मा रज्जह मा मत दूसह इणिट्टअट्टे अव्यय (मुज्झ) विधि 2/2 अक मूर्छित होवो अव्यय मत (रज्ज) विधि 2/2 अक आसक्त होवो अव्यय (दूस) विधि 2/2 अक दोष थोपो [(इट्ठ)+(अणिठ्ठअढेसु)] [(इ8) वि-(अणिट्ठ) वि- इष्ट-अनिष्ट (अट्ठ) 7/2] पदार्थों में [(थिरं) + (इच्छहि)] थिरं (थिर) 2/1 वि स्थिर इच्छहि(इच्छ) विधि 2/1 सक चाहो अव्यय (चित्त) 2/1 चित्त को [(विचित्त) वि-(झाण)- अद्भुत ध्यान (प्पसिद्धि) 4/1] की सम्पन्नता के लिए थिरमिच्छहि यदि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए अन्वय- जइ विचित्तझाणप्पसिद्धीए थिरमिच्छहि चित्तं इट्टणि?अढेसु मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह। अर्थ- यदि (तुम) अद्भुत ध्यान की सम्पन्नता के लिए (प्रयत्नशील हो) (तो) स्थिर चित्त चाहो (और) (उसके लिए) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में (तादात्म्य करके) मूर्च्छित मत होवो, आसक्त मत होवो, (और) (उन पर) दोष मत थोपो। (60) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. पणतीससोलछप्पणचउद्गमेगं च जवह ज्झाएह। परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण।। पणतीससोलछप्पण- [(पणतीससोलछप्पणचउदुगं) चउदुगमेगं +(एगं)] [(पणतीस) वि-(सोल) वि- पैंतीस, सोलह, (छ) वि-(प्पण) वि- छह, पाँच, चार, (चउ) वि-(दुग) 2/1 वि] दो से युक्त और एगं (एग) 2/1 वि एक को अव्यय और जवह (जव) विधि 2/2 सक जपो ज्झाएह (ज्झाअ) विधि 2/2 सक ध्याओ परमेट्ठिवाचयाणं [(परमेट्ठि)-(वाचय) परमेष्ठी का (अर्थ) 6/2 वि] बतलाने वाले अण्णं (अण्ण) 2/1 सवि अन्य को अव्यय गुरूवएसेण [(गुरु) + (उवएसेण)] [(गुरु)-(उवएस) 3/1] गुरु के उपदेश से अन्वय- परमेट्ठिवाचयाणं पणतीससोलछप्पणचउदुगमेगं जवह ज्झाएह च गुरूवएसेण अण्णं च। अर्थ- परमेष्ठी का (अर्थ) बतलाने वाले (मंत्रों का) अर्थात् पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो से युक्त और एक (अक्षररूप मंत्रपदों) को जपो, ध्याओ और गुरु के उपदेश से अन्य को भी (जपो, ध्याओ)। सोलस-सोल यहाँ स का लोप हुआ है। 2. ज्झा--ज्झाअ (अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य) स्वरान्त धातुओं में विकल्प से अ जोड़ा जाता है। 1. द्रव्यसंग्रह (61) For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. णट्टचदुघाइकम्मो दसणसुहणाणवीरियमईओ। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो।। णठ्ठचदुघाइकम्मो दंसणसुहणाणवीरियमईओ सुहदेहत्थो [(ण) भूक अनि-(चदु) वि- समाप्त कर दिए गए है (घाइ)-(कम्म) 1/1] चार घातिया कर्म [(दसण)-(सुह)-(णाण) दर्शन, सुख, ज्ञान -(वीरियमईअ) 1/1 वि] वीर्य से युक्त [(सुह) वि-(देहत्थ) कल्याणकारी देह 1/1 वि] में स्थित (अप्प) 1/1 आत्मा (सुद्ध) 1/1 वि शुद्ध (अरिह) 1/1 अरिहंत (विचिंत) विधिकृ 1/1 सक समझी जानी चाहिए अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो अन्वय- णट्ठचदुघाइकम्मो दंसणसुहणाणवीरियमईओ सुहदेहत्थो सुद्धो अप्पा अरिहो विचिंतिज्जो। अर्थ- (जिसके द्वारा) चार घातिया कर्म समाप्त कर दिए गए है (जो) दर्शन- सुख-ज्ञान-वीर्य (अनंत चतुष्टय) से युक्त है, कल्याणकारी देह में स्थित है (वह) शुद्ध आत्मा अरिहंत समझी जानी चाहिए। (62) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा। पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो।। णट्टकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दष्ट्य पुरिसायारो [(ण)+ (अट्ठकम्मदेहो)] [(णट्ठ) भूकृ अनि-(अट्ठ) वि- त्याग दिया गया है (कम्म)-(देह) 1/1] आठ कर्मरूपी शरीर [(लोय)+(अलोयस्स)] [(लोय)-(अलोय) 6/1] लोक और अलोक के (जाणअ) 1/1 वि जाननेवाले (दछु) 1/1 वि देखनेवाले [(पुरिस)+(आयारो)] [(पुरिस)-(आयार) 1/1] पुरुषाकार (अप्प) 1/1 आत्मा (सिद्ध) 1/1 वि सिद्ध (झाअ) विधि 2/2 सक ध्यान करो [(लोय)-(सिहरत्थ) - लोक के शिखर पर 1/1] स्थित अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो अन्वय- णट्टकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा पुरिसायारो अप्पा सिद्धो लोयसिहरत्थो झाएह। ___अर्थ- (जिनके द्वारा) आठ कर्मरूपी शरीर त्याग दिया गया है, (जो) लोक और अलोक को जाननेवाले, देखनेवाले, पुरुषाकार आत्मा हैं (वे) सिद्ध (हैं) (तथा) लोक के शिखर पर स्थित हैं)। (उनका) (तुम सब) ध्यान करो। 1. झा- झाअ (अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त अन्य) स्वरान्त धातुओं में विकल्प से अ जोड़ा जाता है। द्रव्यसग्रह (63) For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. दंसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे। अप्पं परं च जुंजइ सो आइरिओ मुणी झेओ।। दंसणणाणपहाणे प्रधान वीरियचारित्तवरतवायारे अप्पं [(दसण)-(णाण)- दर्शन, ज्ञान (पहाण) 7/1 वि] [(वीरियचारित्तवरतव) +(आयारे)] [(वीरिय)-(चारित्त)-(वर) वि वीर्य, श्रेष्ठ चारित्र, -(तव)-(आयार) 7/1] तपाचार में (अप्प) 2/1 स्वयं को (पर) 2/1 वि पर को अव्यय और (मुंज) व 3/1 सक जोड़ता है (त) 1/1 सवि वह (आइरिअ) 1/1 आचार्य (मुणि) 1/1 (झेअ) विधिकृ 1/1 अनि ध्यान किया जाना चाहिये जुंजइ आइरिओ मुणी झेओ मुनि अन्वय- दंसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे अप्पं च परं जुंजइ सो आइरिओ मुणी झेओ। अर्थ- (जो) दर्शन (सम्यग्), ज्ञान (सम्यग्) प्रधान वीर्याचार, श्रेष्ठ चारित्राचार और तपाचार में स्वयं को और पर को जोड़ते हैं वे आचार्य मुनि ध्यान किये जाने चाहिये। 04 द्रव्यसंग्रह JA Education International For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो। सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स।। रयणत्तयजुत्तो रत्नत्रयसहित णिच्चं सदा धम्मोवदेसणे (ज) 1/1 सवि [(रयणत्तय)(जुत्त) भूकृ 1/1 अनि] अव्यय [(धम्म)+ (उवदेसणे)] [(धम्म)-(उवदेसण) 7/1] (णिरद) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (उवज्झाअ) 1/1 (अप्प) 1/1 [(जदि)-(वर) वि-(वसह) 1/1] णिरदो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो धर्म का उपदेश देने में तत्पर वह उपाध्याय आत्मा मुनियों में श्रेष्ठ और प्रमुख नमस्कार उसको अव्यय णमो तस्स (त) सवि 4/1 अन्वय- जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो जदिवरवसहो सो उवज्झाओ अप्पा तस्स णमो। ___ अर्थ- जो रत्नत्रय-(सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) सहित (हैं), सदा धर्म का उपदेश देने में तत्पर (हैं), मुनियों में श्रेष्ठ और प्रमुख हैं वे उपाध्याय आत्मा (हैं), उनको नमस्कार। 1. 2. वसह- समास के अन्त में होने से यहाँ वसह का अर्थ है प्रमुख। णमो' के योग में चतुर्थी होती है। द्रव्य सग्रह nternational For Personal & Private Use Only www.jainelibr (65) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो ह चारितं । साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ।। दंसणणाणसमग्गं मगं मोक्खस्स जो 5 co हु चारित्तं साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स' 1. [ ( दंसण) - ( णाण) ( समग्ग) 1 / 1 वि] ( मग्ग) 2 / 1 (मोक्ख) 6/1 (ज) 1 / 1 सवि अव्यय (चारित) 2 / 1 ( साधय) व 3 / 1 सक ( णिच्चसुद्ध) 2/1 वि (66) ( साहु) 1 / 1 (त) 1/1 सवि (मुणि) 1/1 अव्यय (त) सवि 4 / 1 'णमो' के योग में चतुर्थी होती है। अन्वय- जो दंसणणाणसमग्गं मोक्खस्स मग्गं णिच्चसुद्धं चारित्तं साधयदि ह स मुणी साहू तस्स णमो । अर्थ- जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान से युक्त मोक्ष के साधन सम्यक् (सदैव शुद्ध) चारित्र को पालते हैं, निश्चय ही वह मुनि साधु (परमेष्ठी) (हैं), उनको नमस्कार । दर्शन, ज्ञान से युक्त साधन मोक्ष के जो For Personal & Private Use Only निश्चय ही चारित्र को पालते हैं सम्यक् (सदैव शुद्ध) साधु वह मुनि नमस्कार उसको द्रव्यसंग्रह Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साह। लभ्रूण य एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं।। किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती जिस किसी का थोड़ा भी ध्यान करता हुआ निष्काम वृत्तिवाला हवे जदा साहू लद्धण (ज) 2/1 सवि अव्यय (चिंत) वकृ 1/1 सक {[(णिरीह) वि-(वित्ति) 1/1] वि} (हव) व 3/1 अक अव्यय (साहु) 1/1 (लद्धूण) संकृ अनि अव्यय (एयत्त) 2/1 [(तदा)+(आहु)] तदा (अ) = तब आहु (आहु) 3/1 सक (त) 2/1 सवि (त) 6/1 सवि (णिच्छय) 2/1 वि (ज्झाण) 2/1 हो जाता है जब साधु प्राप्त करके पादपूर्ति एकाग्रता को एयत्तं तदाहु तब कहा तस्स णिच्छयं उसको उसके निश्चय ध्यान ज्झाणं अन्वय- जदा साहू जं किंचिवि चिंतंतो एयत्तं लद्धण णिरीहवित्ती हवे य तस्स तं णिच्छयं ज्झाणं तदाहु। अर्थ- जब साधु जिस किसी (पदार्थ) का थोड़ा भी ध्यान करते हुए एकाग्रता को प्राप्त करके निष्काम वृत्तिवाले हो जाते हैं तब उनके उस ध्यान को (जिनवरों ने) निश्चय (ध्यान) कहा। 1. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ-679। 2. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ-7551 JOHTemational Jafft Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibra(67) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. मा विद्वत या जंगह मा चिनात् किंचि जेष्ठ होड़ थि। 56. मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं।। मत मा चिट्ठह जंपह चिंतह काय की क्रिया करो मत बोलो मत विचार करो कुछ भी जिससे होता है किंवि जेण होइ थिरो अव्यय (चिट्ठ) विधि 2/2 अक अव्यय (जंप) विधि 2/2 सक अव्यय (चिंत) विधि 2/2 अक अव्यय अव्यय (हो) व 3/1 अक (थिर) 1/1 वि (अप्प) 1/1 (अप्प) 7/1 वि (रअ) भूकृ 1/1 अनि [(इणं)+ (एव)] इणं (इम) 1/1 सवि एव (अ) = ही (पर) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक (ज्झाण) 1/1 स्थिर अप्पा अप्पम्मि आत्मा आत्मा में तृप्त हुआ रओ इणमेव यह हवे सर्वोत्तम/उत्कृष्ट होता है ध्यान ज्झाणं अन्वय- किंवि मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह जेण अप्पा अप्पम्मि रओ थिरो होइ इणमेव परं ज्झाणं हवे। ___ अर्थ- कुछ भी काय की क्रिया मत करो, कुछ भी मत बोलो, कुछ भी विचार मत करो जिससे (जिसके फलस्वरूप) आत्मा आत्मामें तृप्त हुआ स्थिर हो जाता है। यह ही सर्वोत्तम/उत्कृष्ट ध्यान होता है। प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ-679। (68) cation International For Personal & Private Use Only wwww द्रव्यसंग्रह Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह।। तवसुदवदवं तपवान, श्रुतवान, व्रतवान चेदा आत्मा ध्यान रूपी रथ का ज्झाणरहधुरंधरो धुरंधर होता है हवे जम्हा तम्हा तत्तियणिरदा [(तव)-(सुद)(वदवन्त-वदवं) 1/1 वि अनि] (चेद) 1/1 [(ज्झाण)-(रह)(धुरंधर) 1/1 वि] (हव) व 3/1 अक अव्यय अव्यय [(त) सवि-(त्तियणिरद) 1/2 वि] (तल्लद्धि) 4/1 अव्यय (हो) विधि 2/2 अक चूँकि इसलिए उन तीनों में तल्लीन तल्लद्धीए सदा उसकी प्राप्ति के लिए हमेशा होओ होह अन्वय- जम्हा तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे तम्हा तल्लद्धीए सदा तत्तियणिरदा होह। अर्थ- चूँकि तपवान, श्रुतवान, व्रतवान आत्मा ध्यान रूपी रथ का धुरंधर होता है इसलिए उसकी प्राप्ति के लिए हमेशा (तुम सब) उन तीनों (तप, श्रुत, व्रत) में तल्लीन होओ। 1. वान या वाला अर्थ के लिए ‘मन्त' प्रत्यय जोड़ा जाता है। मन्त जोड़ते समय 'म' का 'व' हो जाता है। मन्त→वन्त→वं यहाँ म का व न का अनुस्वार तथा त का लोप हुआ है। प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ-679। 2. द्रव्यसग्रह For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58. दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। सोधयंतु तणुसुत्तधरेणं णेमिचन्दमुणिणा भणियं जं।। यो दव्वसंगहमिणं द्रव्यसंग्रह यह मुनियों के स्वामी . दोष समूह-रहित मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा श्रुत में पूर्ण [(दव्वसंगह)+ (इणं)] दव्वसंगहं (दव्वसंगह) 1/1 इणं (इम) 1/1 सवि [(मुणि)-(णाह) 1/2] [(दोस)-(संचय)- (चुद) भूकृ 1/2 अनि ] [(सुद)-(पुण्ण) 1/2 वि] (सोधय) विधि 3/2 सक [(तणु)-(सुत्त)(धर) 3/1 वि] [(णेमिचन्द)-(मुणि) 3/1] (भण-भणिय) भूकृ 1/1 (ज) 1/1 सवि सोधयंतु तणुसुत्तधरेणं शोधन करें अल्प श्रुत के धारक णेमिचन्दमुणिणा नेमिचन्द मुनि के द्वारा रचा गया (कहा गया) भणियं अन्वय- तणुसुत्तधरेणं णेमिचन्दमुणिणा जं दव्वसंगहमिणं भणियं दोससंचयचुदा सुदपुण्णा मुणिणाहा सोधयंतु। अर्थ- अल्प श्रुत के धारक नेमिचन्द मुनि के द्वारा जो यह द्रव्यसंग्रह रचा गया (कहा गया) है (उसका) दोष समूह-रहित, श्रुत में पूर्ण मुनियों के स्वामी (आचार्य) शोधन करें। (70) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ 1. जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिद्दिढें। देविंदविंदवंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा।। जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्स सोडगई।। 3. तिक्काले चदपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सा जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।। उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चधा। चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं।। 5. णाणं अट्ठवियप्पं मदिसुदिओही अणाणणाणाणि। मणपज्जयकेवलमवि पच्चक्खपरोक्खभेयं च।। 6. अट्ठ चदु णाण सण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं। ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं।। 7. वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ट णिच्छया जीवे। णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो।। द्रव्यसंग्रह (71) For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___8. पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं।। 9. ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स।। 10. अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा।। 11. पुढविजलतेयवाऊ वणप्फदी विविहथावरेइंदी। विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होंति संखादी।। 12. समणा अमणा णेया पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे। बादरसुहमेइंदी सव्वे पज्जत्त इदरा य।। 13. मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा ह सुद्धणया। 14. णिक्कम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता।। ____15. अज्जीवो पुण णेओ पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं। कालो पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा दु।। (72) ucation International For Personal & Private Use Only wwद्रव्यसंग्रह Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. सद्दो बंधो सुमो थूलो संठाण भेद तम छाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ।। 17. गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेई ।। 18. ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई ।। 19. अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं । जेहं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं । । 20. धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये । आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ।। 21. दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो । परिणामादी लक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो । 22. लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया ह इक्किक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ।। 23. एवं छन्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं । उत्तं कालविजुत्तं णादव्वा पंच अत्थिकाया दु।। द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only (73) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. संति जदो तेणेदे अत्थित्ति भणंति जिणवरा जम्हा। काया इव बहदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य।। 25. होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे अणंत आयासे। मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ।। 26. एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि। बहुदेसो उवयारा तेण य काओ भणंति सव्वण्ह।। 27. जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुवट्टीदं। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणट्ठाणदाणरिहं।। ___ 28. आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपावा जे। जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो।। 29. आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेओ। भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि।। 30. मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओऽथ विण्णेया। पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स।। 31. णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो सणेओ अणेयभेओ जिणक्खादो।। (74)cation International For Personal & Private Use Only www.द्रव्यसंग्रह, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. बज्झदि कम्मं जेण द चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो। 33. पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो। जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति।। 34. चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेद। सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो।। 35. वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य। चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा।। 36. जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा।। 37. सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो ह परिणामो। णेयो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो।। 38. सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च।। 39. सम्मइंसणणाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे। ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा।। द्रव्यसग्रह Jain EducaSn International For Personal & Private Use Only www.jainelib (75) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि। तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा।। 41. जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु। दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि।। 42. संसयविमोहविब्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।। 43. जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं। अविसेसिदण अटे दंसणमिदि भण्णए समए।। 44. दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा। जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि।। 45. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणिय।। 46. बहिरब्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासटुं। णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तं।। दविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह।। (76)ducation International For Personal & Private Use Only wwwद्रव्यसंग्रहrg Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्ठणि?अढेसु। थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए।। 49. पणतीससोलछप्पणचउद्गमेगं च जवह ज्झाएह। परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण।। 50. णट्ठचघाइकम्मो दसणसुहणाणवीरियमईओ। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो।। 51. णट्ठट्टकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा। पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो।। 52. सणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे। अप्पं परं च जुंजइ सो आइरिओ मुणी झेओ।। 53. जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो। सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स। 54. दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं। साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स।। 55. जं किंचिवि चिंतंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लखूण य एयत्तं तदाह तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं।। द्रव्यसग्रह For Personal & Private Use Only (77) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं।। 57. तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह।। 58. दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। सोधयंतु तणुसुत्तधरेणं णेमिचन्दमुणिणा भणियं जं।। (78) cation International For Personal & Private Use Only द्रव्यसग्रह Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-1 संज्ञा-कोश लिंग संज्ञा शब्द अक्ख अग्ग अचक्खु अजीव अट्ठ अणंत अणु अणुपेहा अणुभाग अत्थिकाय अधम्म अर्थ गा.सं. इन्द्रिय अकारान्त नपुं. 11 अग्रभाग अकारान्त नपुं. 14 अचक्षु उकारान्त पु., नपुं. 4 अजीव अकारान्त पु. 15, 23, 28 पदार्थ अकारान्त पु., नपुं. 43, 48 अनंत अकारान्त नपुं. 25 अणु/परमाणु उकारान्त पु. 26, 27 अनुप्रेक्षा आकारान्त स्त्री. 35 अनुभाग अकारान्त पु. 33 अस्तिकाय अकारान्त पु. 23, 24 अधर्म अकारान्त पु. 15, 18, 20, 25 आत्मा अकारान्त पु. 29, 37, 39, 41, 42, 50, 51, 53,56 स्वयं अकारान्त पु. आत्मा अकारान्त पु. अरिहंत अकारान्त पु. अलोक अकारान्त पु. अलोकाकाश अकारान्त पु. अलोक अकारान्त पु. 51 अप्प अप्प अप्पाण अरिह अलोग अलोगागास अलोय द्रव्यसंग्रह (79) For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद आदि अवगास अवकाश अकारान्त पु. अविरदि अविरति इकारान्त स्त्री. आइरिअ आचार्य अकारान्त पु. आउ आयु उकारान्त नपुं. 3, 38 आणपाण श्वास निकालना,अकारान्त पु. 3 श्वास लेना आत्मा अकारान्त पु. 8, 32, 40 निज आदव आतप अकारान्त पु. आदि इकारान्त पु. 8, 11, 15, 19, 21, 30, 31, 41 आचार अकारान्त पु. आकार अकारान्त पु. निश्चय/विकल्पअकारान्त पु. आयास आकाश __ अकारान्त नपुं. 15, 20, 25, 27 आसव आस्रव अकारान्त पु. 28, 31, 34 आसवण प्रवेश अकारान्त नपुं. 29 इंदिय इन्द्रिय अकारान्त पु., नपुं. 3, 11, 12 उज्जोद उद्योत अकारान्त पु. 16 उर्ध्व अकारान्त नपुं. 2 उप्पाद उत्पाद अकारान्त पु. 14 उवओग/उवउग्ग उपयोग अकारान्त पु. 4, 44 उवएस उपदेश अकारान्त पु. आयार उड् अक (80)cation International For Personal & Private Use Only www.द्रव्यसंग्रह Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय उपदेश उवज्झाअ उवदेसण उवयार उवसंहार एयत्त ओहि व्यवहार संकोच एकाग्रता अवधि कर्म कम्म कसाय कषाय काअ काय काया काय कारण कारण अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. 26 अकारान्त पु. 10 अकारान्त नपुं. 55 इकारान्त पु., स्त्री.4, 5 अकारान्त पु., नपुं. 8, 9, 29, 32, 34, 36, 37, 50, 51 अकारान्त पु. 33 अकारान्त पु. 25,26 आकारान्त स्त्री. 24 अकारान्त नपुं. 39, 40, 46 अकारान्त पु. 15, 20, 21, 23,25 उकारान्त पु. 22 आकारान्त स्त्री. 46 अकारान्त नपुं. 4,5 अकारान्त पु. 30 अकारान्त पु. 26 अकारान्त पु. 37 इकारान्त स्त्री. 2, 17 अकारान्त पु. 7 अकारान्त नपुं. 17 अकारान्त नपुं. 42, 43 काल कालाणु काल कालाणु क्रिया केवल किरिया केवल कोध क्रोध खंध खय स्कंध . नाश गमन गंध गई गंध गमण गति गहण ज्ञान/भान अका द्रव्यसंग्रह (81) For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण गुणठाण गुत्ति गुप्ति गुरु चक्षु गोद घाइ चक्खु चरण चारित्त चित्त चारित्र चेदण गुण अकारान्त पु., नपुं. 14, 15 गुणस्थान अकारान्त नपुं. 13 इकारान्त स्त्री. 35,45 गुरू उकारान्त पु. 49 गोत्र अकारान्त पु., नपुं. 38 घातिया इकारान्त नपुं. 50 उकारान्त पु., न. 4 चारित्र अकारान्त पु., नपुं. 39 अकारान्त नपुं. 35, 45, 52, 54 चित्त अकारान्त नपुं. 47, 48 आत्मा अकारान्त पु. 10, 57 भाव/चेतन/ अकारान्त पु. 8, 9, 32, आत्मा आकारान्त स्त्री. 3 छाया आकारान्त स्त्री. 16,18 मुनि अकारान्त पु. 53 जल अकारान्त नपुं. 11 जिनेन्द्र अकारान्त पु. 29, 31, 45, 46 जिनवर अकारान्त पु. 1, 24 जीव अकारान्त पु., नपुं. 1, 2, 3, 6, 7, 11, 17, 18, 19, 20, 23, 25, 28, 38, 41 अकारान्त पु. 30, 33 34 चेदणा चैतन्य छाया जदि जल जिण जिणवर जीव जोग (82) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाण ठाण ठिदि णाण णाम णाह 31 णाणावरण णिच्छय णिच्छयणय णिज्जरा णियम णिरोहण निर्जरा नियम ध्यान अकारान्त पु., नपुं. 47, 48, 55, 56, 57 स्थिति/स्थान अकारान्त पु., नपुं. 18, 27 स्थिति इकारान्त स्त्री. 33 ज्ञान अकारान्त नपुं. 4, 5, 6, 39, 41, 44, 50, 52, 54 नाम अकारान्त नपुं. 38 भगवान/स्वामीअकारान्त पु. 44, 58 ज्ञानावरण अकारान्त नपुं. निश्चय अकारान्त पु. 7, 8, 9, 10, 39 निश्चयनय अकारान्त पु. 3, 9, 10 आकारान्त स्त्री. 28, 36 अकारान्त पु. 47 रोकना अकारान्त नपुं. 34 तम अकारान्त पु., नपुं. 16 उसकी प्राप्ति इकारान्त स्त्री. 57 तप अकारान्त पु. 36,52, 57 त्रस अकारान्त पु. 11 उसका नष्ट होनाअकारान्त नपुं. 36 तीन काल अकारान्त नपुं. 3 तेज ____ अकारान्त पु. 11 जल अकारान्त नपुं. 17 स्थावर अकारान्त पु. 11 दर्शन अकारान्त पु., नपुं. 4, 6, 43, 44, 50, 52, 54 तम तल्लद्धि तव तस्सडण तिक्काल तेय तोय थावर दसण द्रव्यसंग्रह (83) For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दविय द्रव्य द्रव्य अकारान्त पु., नपुं. 40 अकारान्त पु., नपुं 1, 16, 21, 22, 23, दव्व ____37 देना अकार देह दोस दोष दव्वासव द्रव्यास्रव अकारान्त पु., नपुं 31, 34, 58 दाण अकारान्त पु., नपुं. 19, 27 दुक्ख दुःख अकारान्त पु., नपुं. 9 दुरअभिणिवेस ___ तार्किक दोष अकारान्त पु. 41 देविंद देवेन्द्र अकारान्त पु. . 1 देस प्रदेश अकारान्त पु. 10, 24, 26 देह/शरीर अकारान्त पु., नपुं. 10, 14, 51 अकारान्त पु. 58 अकारान्त पु., नपुं. 15, 17, 20, 25, 35, 53 पच्चक्ख प्रत्यक्ष अकारान्त नपुं. पर्याय अकारान्त पु. 16 पणास विनाश अकारान्त पु. पदेस अकारान्त पु. 22, 25, 26, 27, 32, 33 पभेद अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 10 प्रमाद अकारान्त पु. 30 पयडि इकारान्त स्त्री. 33 परमट्ठ परमार्थ अकारान्त पु. 21 पज्जाय प्रदेश भेद पमाण प्रमाण पमाद प्रकृति Jail Otdation International For Personal & Private Use Only द्रव्यस Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमेट्ठि परिणाम परिमाण परिवट्ट परीसहजअ परोक्ख पवित्ति पवेसण पसप्प पसिद्धि पहिय प्रवेश पाण परमेष्ठी इकारान्त पु. __49 परिवर्तन/भाव अकारान्त पु. 21, 29, 34, 37 परिमाण अकारान्त नपुं. 2 बदलाव अकारान्त पु. 21 परीषह को जीतनाअकारान्त पु. 35 परोक्ष अकारान्त नपुं. 5 प्रवृत्ति इकारान्त स्त्री. 45 अकारान्त पु., नपुं. 32 विस्तार अकारान्त पु. 10 सम्पन्नता इकारान्त स्त्री. 48 पथिक अकारान्त पु. 18 अकारान्त पु., नपुं. 3 अकारान्त पु., नपुं. 28,38 पुद्गल अकारान्त पु., नपुं. 8, 9, 15, 16, 17, 18, 20, 27, 31,36 इकारान्त स्त्री. 11 पुण्य अकारान्त पु., नपुं. 28 पुरुष अकारान्त पु., नपुं. फल अकारान्त पु., नपुं. 9 अकारान्त पु., नपु. 7 अकारान्त पु. 7, 16, 33 अकारान्त नपुं. 28 अकारान्त नपुं. 3 प्राण पाव पाप पुग्गल पृथ्वी पुढवि पुण्ण पुरिस फल स्पर्श बंध फास बंध बंधण बल बंध बल द्रव्यसग्रह For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव संसार अकारान्त पु. अकारान्त पु. 46 9, 32, 36, 38 भाव भाव अवस्था पदार्थ भावबंध भावमोक्ष भावसंवर भावबंध भावमुक्ख भावसंवर भावासव भेद भेय/भेअ भावास्रव मग्ग मग्गण भेद/प्रकार साधन मार्गणा मछली मनःपर्यय मच्छ मणपज्जय अकारान्त पु. 32 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 34, 35 अकारान्त पु. 29 अकारान्त पु., नपुं. 16, 30, 33, 35 अकारान्त नपुं. 5, 23, 31, 42 अकारान्त पु. 54 अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. 17 अकारान्त पु. 5 इकारान्त नपुं., स्त्री.5 अकारान्त नपुं. 30 अकारान्त पु. 40 इकारान्त पु. 47, 52, 54, 58 इकारान्त स्त्री. 7 अकारान्त पु. 28, 39, 47, 54 अकारान्त पु., नपुं 22 अकारान्त नपुं. 40, 53 अकारान्त पु., नपुं. 7, 36 मति मदि मिच्छत्त मिथ्यात्व मोक्ष मुक्ख मुनि मुणि मुत्ति मोक्ख मूर्तिक मोक्ष रत्न रत्नत्रय रयण रयणत्तय रस रस (86) For Personal & Private Use Only द्रव्यसग्रह Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोह अकारान्त पु., नपुं. 57 इकारान्त पु., स्त्री.22 रूप अकारान्त पु., नपुं. 15, 21 स्वरूप अकारान्त पु., नपुं. 41, 45 निरोध अकारान्त पु. 46 रोकना अकारान्त नपुं. 34 लक्षण अकारान्त पु., नपुं. 6 लोक अकारान्त पु. 19, 20 अकारान्त पु. 14, 22, 51 लोकाकाश अकारान्त पु. 19, 22 रोहण लक्खण लोक लोग लोय लोयायास/ लोगागास वट्टण परिवर्तन वण्ण वर्ण वणप्फदि वनस्पति वद व्रत वय/वअ ववहार व्यय व्यवहार अकारान्त पु., नपुं. 21 अकारान्त पु. 7 इकारान्त पु. 11 अकारान्त पु., नपुं. 35, 45, 57 अकारान्त पु. 14 अकारान्त पु. 3, 6, 7, 8, 9, 10, 21, 39 अकारान्त पु. 45 अकारान्त पु. अकारान्त पु. उकारान्त पु. इकारान्त पु. 55 ववहारणय व्यवहारनय वसह ऋषभ प्रमुख वाउ वायु वित्ति वृत्ति द्रव्यसंग्रह (87) For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विंद समूह भेद वियप्प विसेस विस्स मोह विमोह विब्भम विणिवित्ति विमुक्ख वीरिय संख संगह संचय संग्रह अकारान्त नपुं. 1 अकारान्त पु. 4 भेद अकारान्त पु., नपुं. 28, 35 विश्व/लोक अकारान्त पु. 2 अकारान्त पु. 42 भ्रम अकारान्त पु. निवृत्ति इकारान्त स्त्री. मोक्ष अकारान्त पु.. 37 वीर्य अकारान्त पु., नपुं. 52 शंख अकारान्त पु., अकारान्त पु. 58 समूह अकारान्त पु., नपुं. 58 संस्थान अकारान्त नपुं. 16 संवर अकारान्त पु. संशय अकारान्त पु. संसार अकारान्त पु. शब्द अकारान्त पु., नपुं. 16 श्रद्धा अकारान्त नपुं. 41 आगम अकारान्त पुं 43 संक्षेप _अकारान्त पु. 28 समिति इकारान्त स्त्री. 35, 45 सम्यक्चारित्र अकारान्त नपुं. 46 सम्यक्ज्ञान अकारान्त नपुं. 42 संठाण संवर संसय संसार सद्द सद्दहण सम समास समिदि सम्मचारित्त सम्मण्णाण (88) द्रव्यसग्रह For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त सम्मइंसण सरूव साद साहु सिरसा सुद/सुत्त 38 साधु सम्यक्त्व अकारान्त नपुं. 41 सम्यग्दर्शन अकारान्त नपुं. स्वरूप अकारान्त नपुं. साता वेदनीय अकारान्त नपुं. उकारान्त पु. 54,55 सिर से अकारान्त नपुं. 1 अनि श्रुत अकारान्त नपुं. 57,58 इकारान्त स्त्री. 5 शुद्धनय अकारान्त पु. 6, 8, 13 शुद्धभाव अकारान्त पु. 8 अकारान्त नपुं. 9, 50 कारण उकारान्त पु. 34, 47 सुदि श्रुति सुद्धणय सुद्धभाव सुख हेद/हेउ अनियमित संज्ञा सदि विद्यमान होने पर 34, 47 द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश अकर्मक क्रिया अर्थ गा.सं. चिंत चिट्ट मुज्झ रज्ज विचार करना काय की क्रिया करना दोष थोपना मूर्च्छित होना आसक्त होना विद्यमान होना विलीन होना 10 होना होना 13, 21, 38, 55, 56, 57 11, 25, 26, 29, 33, 40, 41, 56,57 7, 20, अस होना विद्यमान होना द्रव्यसंग्रह (90) For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश सकर्मक गा.सं. क्रिया अब्भस अर्थ अभ्यास करना 4/ आहु आसव कहा प्रवेश मिलना/आना चाहना इच्छ जंप बोलना जोड़ना जुज जव जपना जाण जानना 27, 39, 45 49,51 झा/झाअ ध्यान करना णी गति कराना धर ठहराना पभण कहना भोगना पभुंज पाउण प्राप्त करना भण कहना 24, 26 प्रणाम करना वंद वियाण जानना साधय सोधय पालना शोधन करना द्रव्यसंग्रह (91) For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृदन्त शब्द अविसेसिदूण मुत्तु लद्धूण अक्खाद उत्त चुद जुत्त जुद ठिद ठिय णिट्ठि परिणय भणिय (92) छोड़कर प्राप्त करके अर्थ न भेद करके कृदन्त - कोश कहा गया परिवर्तित संबंधक कृदन्त कृदन्त संकृ संकृ संकृ अनि भूतकालिक कृदन्त भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि भूक अनि अनि कहा गया कहा गया रहित युक्त/सहित युक्त अवस्थित स्थित समाप्त कर दिया गया त्याग दिया गया रचा गया / कहा गया भूकृ भूक अनि भूक अनि भूकृ For Personal & Private Use Only गा.सं. 43 40 55 31 20, 23, 29, 46 58 38, 53 18 14 22 50 51 1 17 6, 45, 58 द्रव्यसंग्रह Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगा हुआ तृप्त हुआ आच्छादित भूकृ अनि भूकृ अनि भुत्त रअ वट्टिद विजुत्त विमुक्क विवज्जिय रहित भूकृ अनि रहित भूक अनि रहित भूकृ अनि झेअ णायव्व विधि कृदन्त ध्यान किया विधिकृ अनि 52 जाना चाहिये णादव्व समझा जाना विधिकृ चाहिये समझा जाना विधिक चाहिये णेअ/णेय समझा/जाना विधिकृ अनि 4, 12, 15, 31, 36, जाना चाहिये लक्ख पहचानने योग्य विधिकृ अनि 21 वंद वंदनीय . विधिकृ अनि 1 विचिंतिज्ज समझा जाना विधिकृ 50 चाहिये विण्णेअ/ समझा जाना विधिकृ अनि 13, 29, 30 विण्णेय चाहिये द्रव्यसंग्रह (93) For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छंत गच्छंत चिंतंत बज्झदि भण्णए J(94) cat cation International वर्तमान कृदन्त ठहरता हुआ वकृ चलता हुआ वकृ ध्यान करता हुआ वकृ बाँधा जाता है कहा जाता है कर्मवाच्य कर्मवाच्य अनि कर्मवाच्य अनि For Personal & Private Use Only 17 18 55 2233 43 www.jद्रव्यसंग्रह Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषण-कोश गा.सं. 31, 42 32 शब्द अजीव अणाण अणिट्ठ अणु अणेय अण्णोण्ण अब्भंतर अमण अमुत्ति अरिह अविभागी असंख असमुहद असुद्धणय असुह इक्किक्क 2, 7, 15 अर्थ अजीव (जीव रहित) अज्ञान अनिष्ट छोटा अनेक परस्पर/आपस में अंतरंग अमनवाले अमूर्तिक योग्य अविभाग असंख्यात समुदघात को अप्राप्त अशुद्धनय अशुभ एक-एक इष्ट विपरीत अन्य उपयोगमय कर्ता 10, 22, 25 10 38,45 इट्ट इदर उपयोगमय कत्तु द्रव्यसंग्रह (95) For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचूण केवलि गुरु चरम कुछ कम केवली बड़ा अंतिम छदमस्थ जाननेवाला जितना छदमत्थ जाणअ जावदिय 20, 27 जोग्ग योग्य जाणा 39 Hulit hallella e 14 णाणी णिअ णिक्कम्म णिच्च णिच्चसुद्ध णिच्छय णिम्मण अनेक ज्ञानी अपनी कर्म से मुक्त नित्य सम्यक् (सदैव शुद्ध) निश्चय मनरहित तत्पर/तल्लीन निष्काम अल्प तीन में तल्लीन तीन के समूहयुक्त स्थिर णिरद 53,57 णिरीह तणु त्तियणिरद त्तियमइअ थिर 39,40 48, 56 (96) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूल दठु देहत्थ धर धुरंधर पज्जत्त पयत्त पर परम पहाण पुण्ण पुव्व पुह बहिर बहु बादर भोत्तु मुत्त रूव लक्ख वर द्रव्यसंग्रह स्थूल देखनेवाला देह में स्थित धारण करने वाला धुरंधर पर्याप्त से युक्त अनवरत प्रयास - सहित अन्य भिन्न पर सर्वोत्तम / उत्कृष्ट उत्कृष्ट प्रधान पूर्ण पहला पृथक बाह्य बहुत बादर भोक्ता मूर्त से युक्त प्रकाशक श्रेष्ठ 16 51 50 58 57 2 w ☹ 3 3 2 2 3 ≈ 5 47 12, 38 29 42 56 46 52 58 30 37 46 24, 26, 35 12 2 15, 25 21, 45 21 52, 53 For Personal & Private Use Only (97) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचय विचित्त विविह वीरियमईअ स संजुत्त संसारत्थ संसारी सदेह बतलानेवाला अदभुत अनेक प्रकार के वीर्य से युक्त सहित संयुक्त संसार में स्थित संसारी अपनी देह युक्त मनवाले सम्यक सर्वज्ञ देव सहकारी सहित साधारण केवल होना रूप साकार समग्ग समण सम्म सव्वण्हु सहयारि सहिय 17, 18 सामण्ण सिद्ध 2, 14, 51 सायार सिद्ध सिहरत्थ सुद्ध सुह 51 शिखर पर स्थित शुद्ध 6, 13, 50 38, 45 शुभ कल्याणकारी 50 सुहम/सुहुम सूक्ष्म 12, 16 सेस शेष 15 Ja(98)ation International For Personal & Private Use Only द्रव्यसन www.jamelibrary.org Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या-कोश शब्द अट्ठ अर्थ आठ एक गा.सं. 5, 6, 7, 14, 51 25,49 11, 12, 26 3, 6, 11, 30, 49, 50 13 एक एय/एअ चउ/चदु चउदस चदुविध चार चौदह चार प्रकार का छह 23,49 ति तीन 30 11 तिग तिविह तीन से गमन करनेवाले तीन प्रकार का दुग दुविह दो से युक्त दो प्रकार का दो 19, 36, 47 7, 44 दोवि दोनों 44 पंच पाँच 7, 11, 12, 23 पन्द्रह 30 49 पणदस पणतीस पण विग सोलस 30, 49 पैंतीस पाँच दो से गमन करनेवाले सोलह द्रव्यसंग्रह (99) For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम-कोश सर्वनाम शब्द अर्थ लिंग गा.सं. अण्ण इम अन्य पु., नपुं. यह पु., नपुं. यह पु., नपुं. जो पु., नपुं. 34, 40, 49 23, 56, 58 24 1, 3, 21, 22, 28, 29, 31, 32, 34, 36, 37, 41, 43, 46, 53, 54, 55, 58 1, 2, 3, 17, 18, 20, 21, 22, 25, 27, 28, 29, 31, 32, 34, 37, 39, 40, 41, 44, 46, 52, 53, 54, 55, वह पु., नपुं. 57 सव्व सब पु., नपुं 12, 13, 27, 37 अनियमित सर्वनाम ___जूयं तुम सब 47 (100) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय अस्थि अथ अध अवि इति इदि इव एव एवं कट्टु कमसो खु च अर्थ अस्ति क्रमसे किंचिवि थोड़ा भी किंवि खलु द्रव्यसंग्रह अब इसके बाद ही ही और अतः निश्चयपूर्वक समान / की तरह ही इस प्रकार करके कुछ भी अतः निश्चय ही ही निश्चय ही अव्यय - कोश भी और भी गा. सं. 24 30 + 4 5 24 2 2 2 2 2 2 5 1 8 a 19 36 43 22, 24 56 23 43 30 55 56 34 38 27 41 4, 5, 36, 38, 52 49 For Personal & Private Use Only (101) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चदुधा चार प्रकार का चूँकि यदि जब जदा जदो जम्हा चूँकि 24 24, 57 44 चूँकि क्योंकि जैसे उचित समय आने पर 17, 18 जह जह कालेण जावदिय जुगवं 36 20, 27 जितने एकसाथ जेण पादपूरक जिससे नहीं 25, 40, 44 णमो णाणा णिच्चं णेव नमस्कार अनेक सदा नहीं न ही नहीं वाक्यालंकार इसलिए णो तत्तो तदा तब (102)ation International For Personal & Private Use Only wwwद्व्य संग्रह Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदो उस कारण से इसलिए पादपूर्ति 24, 40, 47, 57 EENE और परन्तु इसलिए निस्सन्देह और 24, 25, 26 3 8, 30, 32, 33 किन्तु परन्तु निश्चय ही दूसरी तरफ और विपरीत प्रारंभ में मत और 48, 56 3, 12, 13, 20, 24, 35, 36, 37, 45 परन्तु 21 26,55 पादपूर्ति तथा द्रव्यसग्रह (103 For Personal & Private Use Only / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी 26, 28 हमेशा वि सदा सव्वदा सम सदा साथ-साथ खूब hon परन्तु निश्चय ही 22, 37, 40, 54 . अनियमित अव्यय अटुं के लिये 46 (104) द्रव्यसग्रह For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंद' छंद के दो भेद माने गए है1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद 1. मात्रिक छंद- मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को ‘मात्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैं- ह्रस्व और दीर्घ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती लघु (ल) (1) (ह्रस्व) गुरु (ग) (s) (दीर्घ) (1) संयुक्त वर्णों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा। (2)जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/गुरु माना जायेगा। जैसे- रामे। यहाँ शब्द में 'रा'और 'मे' दीर्घ वर्ण है। (3) अनुस्वार-युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (5) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा। 2. वर्णिक छंद- जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्णों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों 1. देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) द्रव्यसंग्रह (105) For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है ___- ।ऽऽ मगण यगण 555 तगण - ऽऽ। रगण जगण - - ___ - ऽ।ऽ । । ऽ।ऽ भगण नगण सगण - ।। मात्रिक छंद 1. गाहा छंद गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण ऽ।। ऽ ऽ ऽऽ जीवमजीवं दव्वं ऽ ऽ । ऽ । ऽऽ देविंदविंदवंदं ।।।।।ऽ । ऽ ऽ ऽ जिणवरवसहेण जेण णिद्दिटुं। ऽऽ ऽ ऽ ।ऽ ।। वंदे तं सव्वदा सिरसा।। (106) द्रव्यसंग्रह For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. उग्गाहा छंद ___उग्गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, तथा द्वितीय व चतुर्थ पाद में 18 मात्राएँ होती हैं। उदाहरण ।। । । । ऽ ऽ ।ऽऽ । ऽ । ऽ ऽऽ अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। ।।।। ऽ ॥ऽ ऽ ऽ ॥।।ऽ । ऽ । ऽ ऽ ऽ असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा।। वर्णिक छंद 1. स्वागता छंद स्वागता छंद के प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं। क्रमशः रगण (ऽ । ऽ), नगण (।।।), भगण (।।) और अंत में दो गुरु (ऽ ऽ)। उदाहरण रगण नगण भगण ग ग रगण नगण भगण ग ग ऽ।ऽ।।। ऽ ।। 55 ऽ।ऽ ।। ७ ।। ऽ ऽ दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। 1 234 5 67 891011 123 45 67 891011 रगण नगण भगण ग ग रगण नगण भगण ग ग ऽ।ऽ ।।। ऽ । ऽ ऽ ऽ।ऽ ।। ।।ऽ ऽ सोधयंतु तणुसुत्तधरेणं णेमिचन्दमुणिणा भणियं जं।। 1 234 567891011 1 2 345 6 7 8910 11 द्रव्यसंग्रह (107) For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा छंद संख्या गाहा गाथा छंद संख्या 22. गाहा उग्गाहा गाथा छंद संख्या 43. गाहा गाहा गाहा उग्गाहा उग्गाहा गाहा गाहा उग्गाहा गाहा उग्गाहा गाहा गाहा गाहा गाहा गाहा गाहा 28. गाहा गाहा o ń oo oi गाहा गाहा गाहा गाहा उग्गाहा गाहा उग्गाहा गाहा गाहा गाहा गाहा 12. गाहा गाहा गाहा उग्गाहा 34. गाहा उग्गाहा गाहा गाहा उग्गाहा गाहा गाहा o उग्गाहा गाहा उग्गाहा स्वागता उग्गाहा गाहा गाहा गाहा गाहा गाहा 21. गाहा IK. 39. उग्गाहा गाहा उग्गाहा 41. उग्गाहा गाहा 42. 1XI Jan Laudation International For Personal & Private Use Only द्रव्यसग्रह Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश ____ 1. 2. 3. बृहद-द्रव्यसंग्रह हिन्दी अनुवादक-पण्डित राजकिशोर जैन (श्री दिगम्बर जैन कुन्दकुन्द परमागम ट्रस्ट, इन्दौर एवं पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर) द्रव्यसंग्रह : हिन्दी रूपान्तरकार - धनकुमार जैन (जैनविद्या संस्थान, जयपुर) द्रव्यसंग्रह : सम्पादक - बलभद्र जैन (कुन्दकुन्द भारती प्रकाशन, नई दिल्ली) पाइय-सद्द-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) अपभ्रंश हिन्दी कोश : डॉ नरेश कुमार (डी. के प्रिंटवर्ल्ड (प्रा.) लि., नई दिल्ली) संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश : वामन शिवराम आप्टे (कमल प्रकाशन, नई दिल्ली) हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर) प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल व्याकरण हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना) 5. 6. ___7. 8. द्रव्यसंग्रह (109) For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. प्राकृत रचना सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) 10. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ, : डॉ. कमलचन्द सोगाणी भाग-1 (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) 13. प्राकृत हिन्दी व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) 14. Dravyasamgraha : Introduction and English Translation by Nalini Balbir, (Hindi Granth Karyalaya,Mumbai) (110)ation International (110) on botensional For Personal & Private Use Only Personal polo u wwwद्रव्यसंग्रह Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only