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________________ 43. जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं। अविसेसिदण अटे दंसणमिदि भण्णए समए।। सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं (ज) 1/1 सवि (सामण्ण) 1/1 वि केवल होनारूप (गहण) 1/1 भान (भाव) 6/2 पदार्थों का अव्यय न ही [(कटुं)+ (आयारं)] कटुं' (अ) = करके करके आयारं (आयार) 2/1 निश्चय (विकल्प) (अ-विसेस) संकृ न भेद करके (अट्ठ) 2/2 पदार्थों में [(दंसणं) + (इदि)] दंसणं (दंसण) 1/1 इदि (अ) = निश्चयपूर्वक निश्चयपूर्वक (भण्णए)व कर्म 3/1 सक अनि कहा जाता है (समअ) 7/1 आगम में अविसेसिदूण दसणमिदि दर्शन भण्णए समए अन्वय- अढे अविसेसिदूण णेव कटुमायारं भावाणं जं सामण्णं गहणं समए दंसणमिदि भण्णए। अर्थ- पदार्थों में न (आपस में) भेद करके, न ही (कोई) निश्चय (विकल्प) करके (उन) पदार्थों का जो केवल होनारूप भान (है) (वह) आगम में निश्चयपूर्वक दर्शन कहा जाता है। अनुस्वार का आगम हुआ है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 1-26) कभी-कभी द्वितीया का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-135) 2. द्रव्यसंग्रह (55) www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004046
Book TitleDravyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2013
Total Pages120
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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