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________________ उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा। चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं।। उवओगो (उवओग) 1/1 उपयोग दुवियप्पो {[(दु)वि-(वियप्प)1/1] वि}दो भेद वाला दंसणणाणं [(दसण)-(णाण) 1/1] दर्शन (उपयोग), ज्ञान (उपयोग) अव्यय और दसणं (दसण) 1/1 दर्शन चदुधा अव्यय चार प्रकार का *चक्खु (मूलशब्द) (चक्खु) 1/1 अचक्खू (अचक्खु) 1/1 ओही (ओहि) 1/1 अवधि दसणमध [(दंसणं)+ (अध)] दसणं (दसण) 1/1 दर्शन, अध (अ) = इसके बाद इसके बाद केवलं (केवल) 1/1 णेयं (णेय) विधिकृ 1/1 अनि समझा जाना चाहिये चक्षु अचक्षु केवल अन्वय- उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा चक्खु अचक्खू ओही दंसणं अध केवलं णेयं। अर्थ- उपयोग दो भेदवाला (है)- 1. दर्शन (उपयोग) और 2. ज्ञान (उपयोग)। दर्शन (उपयोग) चार प्रकार का (होता है)- 1. चक्षु (दर्शनोपयोग) 2. अचक्षु (दर्शनोपयोग) 3. अवधि (दर्शनोपयोग) और इसके बाद 4. केवल (दर्शनोपयोग) समझा जाना चाहिये। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (14) Jain Education International द्रव्यसंग्रह www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004046
Book TitleDravyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2013
Total Pages120
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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