SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 41. जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु। दरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि।। जीवादि पर श्रद्धा सम्यक्त्व सम्मत्तं स्वरूप आत्मा का वह जीवादी [(जीव)+(आदी)] [(जीव)-(आदि) 2/2] सद्दहणं (सद्दहण) 1/1 (सम्मत्त) 1/1 रूवमप्पणो [(रूवं)+ (अप्पणो)] रूवं (रूव) 1/1 अप्पणो (अप्प) 6/1 (त) 1/1 सवि अव्यय दुरभिणिवेसविमुक्कं [(दुरभिणिवेस) (विमुक्क) भूकृ 1/1 अनि] णाणं (णाण) 1/1 (सम्म) 1/1 वि अव्यय (हो) व 3/1 अक सदि (सदि) 7/1 अनि जम्हि (ज) 7/1 सवि तार्किक दोष से रहित ज्ञान सम्यक होदि होता है विद्यमान होने पर जिसमें अन्वय- जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं तं रूवमप्पणो तु जम्हि सदि दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं खु सम्मं होदि। ____ अर्थ- जीवादि पर श्रद्धा सम्यक्त्व (है)। वह (सम्यक्त्व) आत्मा का स्वरूप ही (है)। जिसके (सम्यक्त्व के) विद्यमान होने पर तार्किक दोष से रहित ज्ञान भी सम्यक् (अध्यात्म दृष्टिवाला) हो जाता है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) द्रव्यसंग्रह (53) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004046
Book TitleDravyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2013
Total Pages120
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy