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________________ 45. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं । । असुहा विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु भिणियं Խո (असुह) 5 / 1 वि (विणिवित्ति) 1 / 1 (सुह) 7 / 1 वि (ufafa) 1/1 अव्यय (जाण) विधि 2 / 1 सक (चारित) 1 / 1 [(वद) - (समिदि) - (गुत्ति) - ( रूव) 1 / 1 वि] (ववहारणय) 5 / 1 द्रव्यसंग्रह Jain Education International अव्यय [(जिण) - (भण भणिय) भूकृ 1 / 1 सक] → अशुभ से निवृत्ति शुभ में प्रवृत्ति और समझो चारित्र व्रत, समिति और गुप्त से युक्त व्यवहारनय से अन्वय- असुहादो विणिवित्तीय सुहे पवित्ती ववहारणया दु For Personal & Private Use Only निश्चय ही जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया है चारित्तं जाण वदसमिदिगुत्तिरूवं जिणभणियं । अर्थ - अशुभ (भाव) से निवृत्ति और शुभ (भाव) में प्रवृत्ति व्यवहारनय से निश्चय ही चारित्र ( है ) (तुम) समझो। (वह चारित्र) व्रत, समिति और गुप्ति से युक्त (होता है)। जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा गया है। (57) www.jainelibrary.org
SR No.004046
Book TitleDravyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2013
Total Pages120
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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