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________________ 53. जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो। सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स।। रयणत्तयजुत्तो रत्नत्रयसहित णिच्चं सदा धम्मोवदेसणे (ज) 1/1 सवि [(रयणत्तय)(जुत्त) भूकृ 1/1 अनि] अव्यय [(धम्म)+ (उवदेसणे)] [(धम्म)-(उवदेसण) 7/1] (णिरद) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (उवज्झाअ) 1/1 (अप्प) 1/1 [(जदि)-(वर) वि-(वसह) 1/1] णिरदो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो धर्म का उपदेश देने में तत्पर वह उपाध्याय आत्मा मुनियों में श्रेष्ठ और प्रमुख नमस्कार उसको अव्यय णमो तस्स (त) सवि 4/1 अन्वय- जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो जदिवरवसहो सो उवज्झाओ अप्पा तस्स णमो। ___ अर्थ- जो रत्नत्रय-(सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) सहित (हैं), सदा धर्म का उपदेश देने में तत्पर (हैं), मुनियों में श्रेष्ठ और प्रमुख हैं वे उपाध्याय आत्मा (हैं), उनको नमस्कार। 1. 2. वसह- समास के अन्त में होने से यहाँ वसह का अर्थ है प्रमुख। णमो' के योग में चतुर्थी होती है। द्रव्य सग्रह nternational For Personal & Private Use Only www.jainelibr (65)
SR No.004046
Book TitleDravyasangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2013
Total Pages120
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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