Book Title: Dravyasangraha
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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30.
विण्या
पण
पण
जोगकोधादओऽथ
मिच्छत्ताविरदिपमाद - [ (मिच्छत्त) + (अविरदिपमादजोगकोध) + (आदओ) + (अथ)] मिच्छत्ताविरदिपमाद - [ (मिच्छत्त) - (अविरदि) -
जोगकोधादओऽथ
( पमाद) - ( जोग) - (कोध ) -
(आदि) 1/2 ]
अथ (अ)
= अब
अब
( विण्य) विधिक 1/2 अनि समझे जाने चाहिये
(पण) 1/2 वि
पाँच
(पण) 1/2 वि
पाँच
पणदस
)
*तिय (मूल शब्द *चदु (मूल शब्द )
मो
भेदा
मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओऽथ पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा
दु
पुव्वस्स
*
विष्णेया ।
दु पुव्वस्स ।।
( चदु) 1/2 वि
अव्यय
(भेद) 1/2
अव्यय
(पुव्व) 6 / 1 वि
द्रव्यसंग्रह
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( पणदस) 1/2 वि
पन्द्रह
( तिय) 1 / 2 वि 'य' स्वार्थिक तीन
मिथ्यात्व, अविरति
प्रमाद, योग, क्रोध
(कषाय) आदि
अन्वय- अथ पुव्वस्स मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ भेदा विष्णेया कमसो पण पण पणदस तिय दु चदु ।
अर्थ- अब पहले (भावास्रव) के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग, क्रोध ( कषाय) आदि भेद समझे जाने चाहिये। (वे) (मिथ्यात्व आदि) क्रम से पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार ( हैं ) ।
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चार
क्रम से
भेद
और
पहले के
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
(पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 )
(41)
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