Book Title: Dravyasangraha
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 69
________________ 48. मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्ठणि?अट्टेसु। थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए।। मुज्झह मा रज्जह मा मत दूसह इणिट्टअट्टे अव्यय (मुज्झ) विधि 2/2 अक मूर्छित होवो अव्यय मत (रज्ज) विधि 2/2 अक आसक्त होवो अव्यय (दूस) विधि 2/2 अक दोष थोपो [(इट्ठ)+(अणिठ्ठअढेसु)] [(इ8) वि-(अणिट्ठ) वि- इष्ट-अनिष्ट (अट्ठ) 7/2] पदार्थों में [(थिरं) + (इच्छहि)] थिरं (थिर) 2/1 वि स्थिर इच्छहि(इच्छ) विधि 2/1 सक चाहो अव्यय (चित्त) 2/1 चित्त को [(विचित्त) वि-(झाण)- अद्भुत ध्यान (प्पसिद्धि) 4/1] की सम्पन्नता के लिए थिरमिच्छहि यदि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए अन्वय- जइ विचित्तझाणप्पसिद्धीए थिरमिच्छहि चित्तं इट्टणि?अढेसु मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह। अर्थ- यदि (तुम) अद्भुत ध्यान की सम्पन्नता के लिए (प्रयत्नशील हो) (तो) स्थिर चित्त चाहो (और) (उसके लिए) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में (तादात्म्य करके) मूर्च्छित मत होवो, आसक्त मत होवो, (और) (उन पर) दोष मत थोपो। (60) द्रव्यसंग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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