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46. बहिरब्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासटुं।
णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्पचारित्त।।
बाह्य और अंतरंग क्रियाओं का निरोध संसार के कारणों का विनाश करने के लिए ज्ञानी के
बहिरब्भंतर- [(बहिर) वि-(अब्भंतर) वि किरियारोहो -(किरिया)-(रोह) 1/1] *भवकारण(मूलशब्द) [(भव)-(कारण) 6/2] -प्पणासढें (प्पणास8) क्रिविअ णाणिस्स (णाणी) 6/1 वि
(ज) 1/1 सवि [(जिण) + (उत्तं)] [(जिण)-(उत्त) भूकृ 1/1 अनि
(त) 1/1 सवि परमं
(परम) 1/1 वि सम्मचारित्तं [(सम्म)-(चारित्त) 1/1]
जिणुत्तं
जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया है । वह उत्कृष्ट सम्यक् चारित्र
अन्वय- भवकारणप्पणासलृ णाणिस्स बहिरब्भंतरकिरियारोहो तं परमं सम्मचारित्तं जं जिणुत्तं।
अर्थ- संसार के कारणों का विनाश करने के लिए ज्ञानी के बाह्य (शुभअशुभात्मक) और अंतरंग (विकल्पात्मक) क्रियाओं का निरोध (होता है) वह उत्कृष्ट सम्यक् चारित्र (है) जो जिनेन्द्र देव के द्वारा कहा गया है।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
(पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) 1. चतुर्थी के अर्थ में अह्र अव्यय का प्रयोग हुआ है।
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