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27. जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुवट्टीदं'।
तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिहं।।
il.
जावदियं (जावदिय) 1/1 वि जितना आया (अयास) 1/1
आकाश अविभागी- [(अविभागीपुग्गल)+(अणुवट्टीदं)] पुग्गलाणुवट्टीदं [(अविभागी) वि-(पुग्गल) अविभागी पुद्गल
(अणु)-(वट्ट--वट्टिदं→वट्टीदं) परमाणु द्वारा भूकृ 1/1]
आच्छादित (त) 2/1 सवि
उसको अव्यय
निश्चय ही पदेसं (पदेस)/1
प्रदेश जाणे
(जाण) विधि 2/1 सक जानो सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं [(सव्व)+(अणुट्ठाणदाण)+
(अरिहं)] [(सव्व)-(अणु)-(ट्ठाण)- सब अणुओं को (दाण)-(अरिह) ५/1 वि] स्थान देने में योग्य
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अन्वय- जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुवट्टीदं तं खु सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं पदेसं जाणे।
अर्थ- जितना आकाश अविभागी पुद्गल परमाणु द्वारा आच्छादित (है) उसे निश्चय ही सब अणुओं को स्थान देने में योग्य प्रदेश जानो।
उठ्ठद्धं के स्थान पर वट्टीदं (वट्टिदं-वट्टीद) पाठ होना चाहिए। छंद की मात्रा के लिये यहाँ दीर्घ किया गया है। पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 679
2.
द्रव्यसंग्रह
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