Book Title: Dravyasangraha
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 11
________________ नेमिचन्द मुनि ने द्रव्यसंग्रह में जैनधर्म की प्रायः सभी मौलिक अवधारणाओं को स्थान दिया है- उदाहरणार्थ, जीव का स्वरूप व जीवों का वर्गीकरण, उपयोग की धारणा, पुद्गल का स्वरूप, प्रदेश की धारणा, कर्मों का पुद्गलात्मक होना, सम्यग्दर्शन का स्वरूप, तार्किक ज्ञान और सम्यग्ज्ञान में भेद, पंचास्तिकाय की धारणा, उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य की धारणा, निश्चय और व्यवहार का गाथाओं में प्रयोग आदि। ये सभी अवधारणाएँ नेमिचन्द मुनि को परंपरा से प्राप्त हुई हैं जिनको उन्होंने अपने ग्रन्थ में स्थान देकर जैनधर्म को संक्षेप में प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है। द्रव्यसंग्रह के तीन अधिकारों में षड् द्रव्य-सप्त तत्त्व-मोक्ष की अवधारणा को समझाया गया है जो प्रस्तुत है: जिसके तीन काल में चार प्राण- इन्द्रिय, बल, आयु, श्वास निकालना और श्वास लेना होते हैं वह व्यवहारनय से जीव है किन्तु निश्चयनय से जीव निस्सन्देह चैतन्य होता है। वर्ण, रस, गंध, स्पर्श ये निश्चयनय से जीव में नहीं होते हैं उस कारण से जीव अमूर्तिक है। व्यवहारनय से जीव कर्म पुद्गल के बंध से मूर्तिक होता है। अनेक प्रकार के स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं, जैसे- पृथ्वी, जल, तेज, वायु, और वनस्पति। दो इन्द्रिय से जाननेवाले, तीन इन्द्रिय से जाननेवाले, चार और पाँच इन्द्रियों से जाननेवाले त्रस जीव होते हैं, जैसे- शंख आदि। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छह द्रव्य है। रूपादि गुणवाला होने से पुद्गल मूर्तिक होता है किन्तु शेष जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल अमूर्तिक होते हैं। शब्द, बंध (बंधन), सूक्ष्म-स्थूल संस्थान (आकृति), भेद (टुकड़े-टुकड़े होना), तम (अंधकार), छाया, उद्योत (प्रकाश), आतप (सूर्य, अग्नि आदि की गर्मी) पुद्गल की पर्यायें हैं। गति में परिवर्तित पुद्गल और जीवों के लिए धर्म द्रव्य गति में सहकारी होता है, जैसे- मछलियों के लिए जल किन्तु V acation International For Personal & Private Use Only द्रव्यसग्रह www.jathelibrary.org

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