Book Title: Devsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ इस प्रकार अनेक देवसेनाचार्य होने से किन देवसेनाचार्य की कौन सी कृति है, इसमें अनेकों विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। इसमें 10वीं शताब्दी के देवसेन की दर्शनसार, आराधनासार, तत्त्वसार तो सभी विद्वान् एकमत से स्वीकार करते हैं, परन्तु भावसंग्रह, नयचक्र और आलाप-पद्धति के रचनाकारों में विद्वानों में मतभेद है। पं. नेमिचन्द्र जी शास्त्री 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' में लिखते हैं कि दर्शनसार और भावसंग्रह के रचयिता एक ही हैं, क्योंकि श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दी गई गाथाओं में से एक गाथा समान रूप से दोनों ग्रन्थों में निबद्ध है। जैसा कि आचार्यवर कन्दकुन्द के ग्रंथों में दृष्टिगोचर होता है, परन्तु पं. परमानन्दजी शास्त्री 'जैनधर्म का प्राचीन इतिहास' भाग-2 में लिखते हैं कि भावसंग्रह के कर्ता और दर्शनसार के कर्ता देवसेनाचार्य दोनों अलग हैं, क्योंकि दर्शनसार मूलसंघ का ग्रंथ है एवं भावसंग्रह मूलसंघ का ग्रंथ नहीं है। इसका कारण बतलाते हुए लिखते हैं - भावसंग्रह में पंचामृताभिषेक,. शासनदेवी-देवताओं का आह्वान इत्यादि का वर्णन है। इसके उत्तर में पं. नेमिचंद्रजी शास्त्री ने लिखा है कि यह सबल तर्क नहीं है, क्योंकि जो मूलसंघ के समान मान्य है, ऐसे काष्ठासंघ में भी पंचामृताभिषेक आदि मान्य हैं। इसी प्रसंग में पं. नाथराम जी .. शास्त्री ने 'दर्शनसार' की प्रस्तावना में लिखा है कि यापनीय संघ को छोड़कर शेष तीन संघों का मूलसंघ से इतना पार्थक्य नहीं है कि वे जैनाभास हो जायें। ये भी हो सकता है कि देवसेनाचार्य पहले कट्टर मूलसंघी हों और दर्शनसार की रचना की हो, बाद में विचारों में परिपक्वता आने से काष्ठासंघ से प्रभावित हुए हों और बाद में भावसंग्रह लिखा हो। पं. कैलाशचंद्र जी शास्त्री अपनी पस्तक 'उपासकाध्ययन और भावसंग्रह का तुलनात्मक अध्ययन' में लिखते हैं कि भावसंग्रहकार ने उपासकाध्ययन से बहुत विषय लिया है और उपासकाध्ययन वि. सं. 1016 की कृति है। अतः भावसंग्रह बाद की रचना है और 'वर्णी अभिनन्दन ग्रंथ' पृ. 207 में लिखते हैं कि भावसंग्रह में कौलधर्म का कथन 'कर्पूरमंजरी' के समान दृष्टिगोचर होता है। परन्त पं. जी के कथन से मैं सहमत नहीं हूँ, क्योंकि एक ही विषय मूलागम से कोई भी ग्रहण कर सकता है और प्रतिपादन करने की शैली भिन्न-भिन्न हो सकती है। जैसे गुणस्थान का विषय प्रारम्भ से आचार्यों द्वारा वर्णित है चाहे वह आचार्य कन्दकन्द हों या समन्तभद्र या पूज्यपाद या देवसेन या सोमदेव, प्रतिपादन करने की शैली अलग-अलग है। यह भी तो हो सकता है कि इनका 11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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