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१७४ ॥ श्री बार आरा- स्तवन. ॥ ॥ दुहा ॥ सरस्वती भगवती भारती, ब्रह्माणी करी सार ॥ आरा बारतणो वळी, कहीशुं सोय विचार 4॥ १॥ वर्द्धमान जिनवर नमुं, जस अतिशय चोत्रीस ॥ समवसरण बेठा प्रनु, वाणी गुण पांत्रीस ॥२॥ गौतम पूछे वीरने, पर उपगारी अकामी ॥ अनेक बोल विवरी करी, भाखे त्रिभुवन स्वामी ॥ ३ ॥
॥ ढाल ॥ १ ॥ चोपाई ॥ ॥ स्वामी वचन कहे सुकुमाल, आ कहीये अवसर्पिणी काल ॥ दस कोडाकोडी सागर जोय, तिहां षट् श्रारा गौतम होय ॥ १ । सुसम सुसमा पहेलो सार, त्यारे जुगल धरे अवतार ॥ बीजो सुसमा आरो लहु, त्यारे जुगल जुगलणी कहुं ॥२॥सुसम दुसमा त्रीजो वली, त्यारे जुगल कहे केवली ॥ अंते कुलगर हुया सात, नाभिहुआ आदीश्वर तात ॥ ३॥
॥हा॥ आदि धर्म जेणे थापीओ, शीखव्या पुरुष अनंत ॥ त्रीजा आरामांहे वली, मुक्ति गया भगवंता॥
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