Book Title: Chaityavandan Stuti Stavanadi Sangraha Part 01
Author(s): Purvacharya
Publisher: Master Umedchand Raichand
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सदामलतान्तपात्री। पाद्मप्रभी प्रविदधातु सतां वितीर्ण मुन्मुद्रतामरसदा मलतान्तपात्री ॥१॥ सा मे मति वितनुताजिनपङ्क्तिरस्त मुद्रा गतामरसभासुरमध्यगाद्याम् । रत्नांशुभिर्विदधती गगनान्तराल मुद्रागतामरसमासुरमध्यगाद्याम् ॥ २॥ श्रान्तिच्छिदं जिनवरागमश्रयार्थ माराम मानम लसन्तमसंगमानाम् । धामाग्रिमं भवसरित्पतिसेतुमस्त माराममानमलसंतमसंगमानाम् ॥३॥ गान्धारि वज्रमुसले जयतः समीर पाता. लसत्कुवलयावलिनीलभे ते । र्कीतीः करप्रणयिनी तव ये निरुद्ध पातालसत्कुवलया वलिनी लभते ॥४॥
॥ अथ सुपार्थजिनस्तुतिः ॥ कृतनति कृतवान्यो जन्तुजातं निरस्त, स्मरपरमदमायामानवाधायशस्तम्। सुचिरमविचलत्वं चित्तवृत्तेः सुपार्श्व स्मर पस्मदमाया मानवाधाय शस्तम् ॥ १ ॥ व्रजतु जिनततिःसा गोचरं चित्तवृत्तेः सदमरसहिताया वोऽधिका मानवानाम् । पदमुपरि दधाना वारिजाना व्यहार्षी त्सदमरसहिता या बोधिकामा नवानाम् ॥२॥ दिशापशमसौख्यं संयतानां सदैवा रु जिनमतमुदारं
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539