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३४३ पद सिद्धचक्रनां रे । वंदतां पुन्य महंत रे ॥भ० ॥२॥ लोचन कर्ण युगल मुखे रे । नासिका अग्र निलाम ।। तालु सिर नाभि रदे रे । मुंह मध्ये ध्यान पाठ रे ॥ ॥ भ० ॥ ३ ॥ आलंबन स्थानक कह्यां रे । ज्ञानियें देह मझार ॥ तेहमां विगत विषयपणे रे । चितमां एक आधार रे ॥ भ० ॥ ४ ॥ अष्ट कमलदल कर्णीका रे ॥ नव पद थापो भाष ॥ बहिर यंत्र रचि करी रे ॥ धारो अनंत अनुभाव रे ॥ भ० ॥ ५॥ आसो सुदि सातम थकी रे ॥ बिजे अंगे मंडाण ॥ बसें त्रेतालीस गुणे करी रे । असिआ उसादिक ध्यान रे ॥ भ०॥ ॥६॥ उत्तराध्ययन टिका कहे रे । ए दोय सास्वति पात्र ॥ करता देव नंदिसरे रे। नर जिम ठाम सुपाशरे ॥ भविका० ॥७॥
॥ ढाल बीजी॥ भविका सिद्धचक्र पद वंदो ॥ ए देशी ॥ __ आसाढ चोमासानो अठाइ । जिहां अभिग्रह अधिकाई ॥ कृष्ण कुमारपाल परें पालो । जिवदया चित लाइ रे ॥ प्राणी अठाइ मोछव करीयें । सचित आरंभ परिहरीये रे ॥ प्रा० ॥१॥ दिसि गमन तजो
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