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धण रुपे रे जीवनां । अचल छे आठ प्रदेश रे ॥ तेह
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परे सर्व निर्मल करे | पर्व अठाइ उपदेश रे ॥ ५॥ || ढाल सातमी || लीलावंत कुंवर भलो ए देशी ॥ सोहम कहे जंबु प्रते । ज्ञानादि धर्म अनंत रे विनीत || ए आंकणी || अर्थ प्रकाशे विरजी । तिम में रचिओ सिद्धांत रे ॥ विनीत ॥ १ ॥ प्रभु आगम भलो विश्वमां ॥ षठ लाख ऋणसें ने तेत्रीस । ए गुणा साठ हजार रे ॥ वि० ॥ पीस्तालीस आगम तणो । संख्या जगदाधार रे || वि० ॥ २ ॥ प्र० ॥ आठमीए जीन केवळ रवि । सुत दीपे व्यवहार रे ॥वि०॥ उभय प्रकाशक सूत्रनो । संप्रति बहु उपगार रे ॥ ०॥ ३ ॥ प्र० ॥ पुन्य क्षेत्रमां सिद्ध गिरी, मंत्रमहे नवकार रे ॥ वि० ॥ शुक्लध्यान छे ध्यानमां, कल्पसूत्र तिम सार रे ॥वि० ॥४॥ प्र०॥ विर वर्णव छे जेहमां, श्री पर्वतसु सेव रे || वि० || छठ तपे कल्पसूत्र सुणे सुदा, उचित विधि ततखेव रे ॥वि० ॥ ५ ॥ प्र०||
|| ढाल आठमी ॥ तपसु रंग लाग्यो | ए देशी ॥
नेउ सहस संप्रति नृपे रे, उद्धार्या जैन प्रासाद
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