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( ६ ) की। उस समय १३ ही श्रावक पोषा कर रहे थे और १३ ही साधु थे अतः भिक्षु के सम्प्रदाय का "तेरापन्थ" नाम पड़ गया। अथवा भिक्षु ने भगवान् से यह प्रार्थना की कि प्रभो! यह तेरा ही पन्थ है अतः "तेरापन्थ" नाम पड़ा । वास्तव में तो १३ बोल अर्थात् ५ सुमति ३ गुप्ति ५ महाव्रत पालने से ही "तेरापन्थ" नाम पड़ा। इसके अनन्तर भिक्षु ने मेवाड़ देशस्थ "केलवा” नगर में संम्वत् १८१७ में आषाढ शुक्ला १५ के दिन भगवान अरिहन्त का स्मरण कर भावदीक्षा ग्रहण की।और अन्य साधुओंको भी दीक्षा देकर शुद्ध पथ में प्रवाया । वेषधारियों की अधिकता होने से उस समय में भिक्षु को सत्य धर्मके प्रचार में यद्यपि अधिक परिश्रम सहना पड़ा तथापि निर्भीक सिंह के समान गर्जते हुए भिक्षु ने मिथ्यात्वका विनाश करके शुद्ध श्रद्धा की स्थापना की। एवं श्रीभिक्षु शुद्ध जिन धर्मका प्रचार करते हुए विक्रम सम्वत् १८६० भाद्र शुक्ला १३ के दिन सप्त प्रहर का संन्थारा करके स्वर्ग पन्था के पथिक वने।
यह "भिक्षु जीवनी" ग्रन्थ वढ़ जाने के भयसे संक्षिप्त शब्दों से ही लिखी गई है पूर्ण विस्तार श्री जयाचार्य कृत भिक्षजसरसायन में ही मिलेगा। कई धूर्त पुरुषों ने ईर्षा के कारण जो "भिक्षु जीवनी" मन मानी लिखमारी है वह सर्वथा विरुद्ध समझनी चाहिये।
अथ श्री भिक्षुके अनन्तर द्वितीय पट्ट पर पूज्य श्री भारीमालजी विराजमान हुए आप साक्षात् शान्ति के ही मूर्ति थे। आपका अवतार मेवाड़ देशके "महों" नामक ग्राम में सम्वत् १८०३ में हुआ था। आपके पिताका नाम "कृष्ण" जी और माता का नाम "धारणी" जी था । आप ओश वंशस्थ "लोढा" जातीय थे। आपका वर्ग वास सम्वत् १८७८ माघ कृष्ण ८ को हुआ।
पूज्य श्रीभारीमालजी के अनन्तर तृतीय पट्टपर श्री ऋषिरायजी महाराज (रायचन्द्रजी) विराजमान हुए। आपका शुभ जन्म सम्वत् १८४७ में मेवाड़ देशके "वड़ी रावत्यां" नामक ग्राम में हुआ था । आपकी ओशवंशस्थ "बंद" नामक जाति थी आपके पिता का नाम चतुरजी और माता का नाम कुसालांजी था आप सम्प्रदाय के कार्य की वृद्धि करते हुए सम्वत् १६०८ माघ कृष्ण १४ के दिन स्वर्ग स्थलको पधारे।
श्रीऋषिरायजी महाराज के अनन्तर चतुर्थ पट्ट पर इस ग्रन्थ के रचयिता श्रीजयाचार्यजी (जीतमलजी) महाराज विराज मान हुए। आपको कविता करने का