Book Title: Bhram Vidhvansanam
Author(s): Jayacharya
Publisher: Isarchand Bikaner

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Page 13
________________ काम करते हैं। आप यदि भिक्षु के साथ हो जायेंगे तो इसमें आपका कुछ भी नाम नहीं होवेगा केवल भिक्षु का ही सम्प्रदाय कहा जावेगा। इत्यादिक अनेक कुयुक्तियों से रघुनाथजी ने जयमलजी का परिणाम ढीला कर दिया। अथ जयमलजी ने भिक्षु से कह भी दिया कि भिक्षु स्वामिन् ! आप शुद्ध संयम पालिए हम तो गले तक दवे हुए हैं हमारा तो उद्धार होना असम्भवसा ही है। इस अवसर के पश्चात् भिक्षु ने भारीमालजी से कहा कि भारीमाल ! तेरा पिता कृष्णजी तो शुद्ध संयम पालने में असमर्थ सा प्रतीत होता है अतः उसका निर्वाह हमारे साथ नहीं हो सका। तू हमारे साथ रहेगा अथवा अपने पिता का सहगामी वनेगा। ऐसा सुनकर विनीत भाव से भारीमालजी ने उत्तर दिया कि महाराज ! मैं तो आपके चरण कमलों में निवास करता हुआ शुद्ध चारित्र्य पालूंगा मुझको अपने पिता से क्या काम है। ऐसा सुन्दर उत्तर सुनकर भिक्षु प्रसन्न हुए पश्चात् भिक्ष ने कृष्णजीसे कहा कि आपका हमारे सम्प्रदाय में कुछ भी काम नहीं है। यह सुनकर कृष्णजी भिक्षु से बोले कि यदि आप मुझ को नहीं रक्खेंगें तो मैं अपने पुत्र भारीमालको आपके पास नहीं छोडूंगा अतः आप भारीमाल को मुझे सोंप दीजिए। यह सुनकर भिक्षु स्वामी ने कृष्णजी से कहा कि यदि तुम्हारे साथ भारीमाल जावे तो लेजावो मैं कव रोकता हूं। कृष्णजी ने एकान्तमें लेजा कर अपने साथ चलने के लिये भारीमालजी को बहुत सयझाया साथ जाना तो दूर रहा किन्तु अपने पिता के हाथ का यावज्जीव पर्यन्त भारीमालजीने आहार करनेका त्याग और कर दिया। तत्प. श्चात् विवश होकर कृष्णजी ने भिक्षु से कहा कि महाराज ! अपने शिष्य को लीजिए यह तो मेरे साथ चलने को तयार नहीं है कृपया मेरा भी कहीं ठिकानालगा दीजिए। भथ भिक्षु ने कृष्णजी को जयमलजी के टोले में पहुचा कर तीन स्थानों पर हर्ष कर दिया । जयमलजी तो प्रसन्न हुए कि हमको चेला मिला कृष्णजीसमझे कि हम को ठिकाना मिला भिक्षु समझे कि हमारा उपद्रव गया। इसके पश्चात् भिक्षु ने भारीमालजी आदि साधुओं को साथ ले कर विहार किया और जोधपुर नगर में आ विराजमान हुए। जव दीवान फतहचन्दजी सिंघीने वाज़ार में श्रावकों को पोषा करते देखा तव प्रश्न किया कि आज स्थानक में पोषा क्यों नहीं करते हो। तव श्राव कों ने वह सव कथा कह सुनायी जिस कारण से कि भिक्षु स्वामी रघुनाथजी के टोले से पृथक् हुए और स्थानक वास आदिक विविध अनाचारों को छोड़ कर शुद्ध श्रद्धा धारण की। सिंघोजी बहुत प्रसन्न हुए और भिक्षुके सदाचारकी बहुत प्रशंसा

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