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रघुनाथजी बोले कि भाई ! तुम्हारी बातें सुन कर हमारा मन फट गया है और अब हम तुम्हारे आहार पानीको सम्मिलित नहीं रखना चाहते। यह सुन कर भिक्षु ने मन में विचारा कि वास्तव में तो इनमें साधुपने का कोई आचार विचार नहीं है तथापि इस समय बेंचातान करनी ठीक नहीं है पुनः इनको समझा लूंगा । यह विचार कर गुरु कहा कि गुरुजी ! यदि आप को कोई सन्देह हो तो प्रायचित्त दे दीजिये । इस युक्ति से आहार पानी सम्मिलित कर लिया। समय पाकर रघुनाथजी को बहुत समझाया और शुद्ध श्रद्धा धराने का पूरा प्रयत्न किया और यह भी कहा कि अब का चतुर्मास साथ २ ही होना चाहिये जिससे चर्चा की जावे और सत्य श्रद्धा की धारणा हो । क्योंकि हमने घर केवल आत्मोद्धार के लिये ही छोड़ा है। रघुनाथजीने यह कहकर कि "तू और साधुओं को भी फटालेगा" चौमासा साथ २ नहीं किया । एवं पुनः द्वितीयवार भिक्षु स्वामी रघुनाथजी से वगड़ी नामक नगर में मिले और आचार विचार शुद्ध करने के वारे में बहुत समझाया । परन्तु द्रव्य गुरु ने एक वात भी नहीं मानी तव भिक्षु स्वामीने यह विचार कर कि अब ये विलकुल नहीं समझते हैं और केवल दम्भजाल में ही फंसे रहेंगे अपना आहार पृथक् कर लिया । और प्रातःकाल के समय स्थानक से बाहर निकल पड़े । रघुनाथ जी ने यह समझ कर के कि “जब भिक्षु को नगर में स्थान ही नहीं मिलेगा तो विवश हो कर स्थानक में ही आजावेगा " सेवक द्वारा नगरवासियों को सङ्घ की शपथ देकर सूचना दे दी कि कोई भी भिक्षु के ठहरने के लिये स्थान नहीं देना । । भिक्षु ने जब यह सब प्रपञ्च सुना तो मन में विचारा कि नगर में स्थान न मिलने पर यदि मैं पुनः स्थानक ही में गया तो फिर फन्दे में ही पड़ जाऊंगा । एवं अपने मन में निर्णय कर विहार किया और वगड़ी नगर के बाहर जैतसिंहजी की छत्रियों में स्थित हो गये । जब यह बात नगर में फैली और रघुनाथजी ने भी सुना कि भिक्षु स्वामी छत्रियों में ठहरे हुए हैं तो बहुत से मनुष्यों को साथ लेकर छत्रियों में गये. और भिक्षु स्वामी को टोला से बाहर न निकलने के लिये बहुत समझाया । परन्तु
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भिक्षु स्वामी ने एक भी नहीं सुनी और कहा कि मैं आपकी सूत्र विरुद्ध वातों को कैसे मान सक्ता हूं। मैं तो भगवान् की आज्ञानुसार शुद्ध संयम का ही पालन करूगा । ऐसी भिक्षु की बातें सुन कर रघुनाथजो की आशा टूट गई और मोहक वश होकर अश्रुधारा भी बहाने लगे । उदद्यभाणजी नामक साधु ने कहा कि आप टोला के धनी होकर के भी मोह में अवलिप्त हुए अश्रु बहाते हैं । तब रघुनाथजी