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जीव जघन्य अन्तरात्मा है । पाँचवे गुणस्थान अर्थात देशत्रता श्रावक से लेकर ग्यारवाँ उपशांत मोही महामुनि उत्तम अन्तरात्मा है। अरिहन्त भगवान अयोग केवली भगवान एवं सिद्ध भगवान परमात्मा है। जैसे पडित दौलतरामजी ने भी अपने छहढाला में कहा है ।
हिरात अन्तर आतम, परमातम जीव विद्या है। देह जीव को एक गिर्ने, वहिरात तत्त्व मृधा है। उत्तम - मध्यम, जवन विधि के अन्तर आतम ज्ञानी । विविध संग बिन शुद्ध-उपयोगो मुनि उत्तम निज ध्यानि ॥ पं. दौलतरामजी । छटाला क्र. ३/४
जीवो चरित्र दंसण णापठितं हि ससमयं जाण । गुग्गल कम्मपदेसद्धिमं च तं जाण परसमयं ॥
स. सा. गा. २
जीवस्वारित्र दर्शनज्ञानस्थितो यदा भवति तथा काले तमेव जोदं हि स्फुटं स्वसमयं जानीहि विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावे निज परमात्मनि यदुचिरुपं सम्यग्दर्शनं तत्रैव रागादि रहित स्वसंवेदन ज्ञानं तथैव निश्चलानुभूति रूपं वीतराग चारित्रमित्युक्त लक्षणेन निश्चय रत्नत्रयेण परिणत जीव पदार्थ है शिष्य स्वभ्रमयं जानीहि । पुद्गल कर्मोपदेश स्थितंच तमेव जानीहि परसमयम् । - gara निश्चय रत्नत्रया व सत्र यदा स्थितो प्रत्यक जीवस्तदा त जीव परसमयं जानीहि ।
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स. सा. जयसेनाचार्य / त. बृ. गा. २
वह जीव जब चारित्र दर्शन ज्ञान में स्थित रहता है उस समय में उसे स्वसमय समझो। अर्थात् विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाववाल निज परमात्मा में रचि रूप सम्यग्दर्शन और उसमें रागादि रहित स्वसंवेदन का होना यह सम्यग्ज्ञान तथा निश्चल स्वानुभूति रूप वीतराग चारित्र इस प्रकार कहे गये लक्षणवाले निरचय रत्नत्रय के द्वारा परिणत जीवपदार्थ को ह शिष्यं तु स्वसमय समझ । मुद्गल प्रदेश में स्थित उसी जीव को तू परसमय समझा। पूर्वोक्स रत्नत्रय न होने से उस काल में परमय जाना ।
अथ शुद्ध परमात्म तरुष प्रतिपादन मुख्यत्वेन विस्तर रुचि शिष्प प्रति छोधन में श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव निर्मिले समयसार प्रनृतग्रन्थं ।
स सा. जयसेनाचार्य त. वृ. / गा १ अब शुद्ध परमात्म तत्त्व को मुख्य लकर विस्तार में रुचि रखने वालें