Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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पार्श्वनाथ को एक ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार कर लिया है।"
वर्तमान युग में जैनधर्म व जैनसमाज को भारतीय संस्कृति में प्रमुख स्थान प्राप्त है। सनातनी व वैदिक परम्पराओं से भिन्न होने के उपरान्त भी जैनधर्म व समाज का इनके साथ कोई उल्लेखनीय अन्तर्विरोध व्याप्त नहीं है। प्राचीनकाल से ही जैनधर्म को विभिन्न नामों से जाना जाता रहा है। इनमें इसे मुख्य तौर पर श्रमणधर्म, श्रावकधर्म, निर्ग्रन्थधर्म, जैनधर्म इत्यादि नामों से जाना जाता रहा है। समाज व संस्कृति के रूप में 'जैनधर्म' – इस नामकरण को सबसे अन्तिम माना जाता है। जैनधर्म की परम्परानुसार यह भारत की सबसे प्राचीन संस्कृति है। इसके उद्भव एवं विकास की कहानी उतनी ही पुरानी है, जितनी यह सृष्टि। जैन विद्वान् तो यहाँ तक मानते हैं कि जैनधर्म के उद्भवकाल को सीमा में नहीं बांधा जा सकता, क्योंकि उसका उदय व विकास वैदिककाल से भी पूर्ववर्ती है। अनेक पुरातात्त्विक अवशेष भी इस अवधारणा की पुष्टि करते हैं। अब यह स्थापित हो चुका है कि जैनधर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी चौबीसवें तीर्थंकर थे, अर्थात् इनके पूर्व 23 तीर्थंकर पैदा हुए, जिन्होंने जैनधर्म को आगे निरन्तरता प्रदान की।
जैन 'जित्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'जीतना', अर्थात् जिन्होंने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सांसारिकता पर विजय प्राप्त कर ली है, उन्हें 'जिन' अर्थात् 'विजेता' कहा गया तथा इनके अनुयायियों को 'जैन' कहा जाने लगा।
जैसाकि पूर्व में उल्लेख किया गया है कि जैनधर्म अथवा जैनसंस्कृति वैदिककाल से ही अस्तित्व में थी, किन्तु इसकी लोकप्रियता अत्यधिक सीमित थी। वैदिक परम्परा से भिन्न इस परम्परा को विभिन्न नामों से जाना जाता रहा था। वैदिकधर्म में व्याप्त सामाजिक बुराईयों के विरोध में जैनधर्म को लोकप्रियता प्राप्त हुई। वैदिकधर्म में शूद्रों व महिलाओं को उचित स्थान प्राप्त नहीं था, जबकि जैनधर्म में प्राणीमात्र को समान महत्त्व और स्थान प्रदान किया गया है। इसका स्पष्ट उदाहरण यह है कि प्रत्येक वर्ग के लोगों व महिलाओं को भी साधु-संघ में स्थान दिया गया है। एक जैन विद्वान् ने इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "वैदिक परम्परा जन्म-आधारित वर्ण-व्यवस्था को मानती थी। ब्राह्मणों को सर्वश्रेष्ठ, क्षत्रियों को श्रेष्ठ व वैश्य मध्यम तथा शूद्रों को इन दोनों से नीचा स्थान देती थी। ब्रह्माजी के मुँह से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय जांघों से वैश्य व पैरों से शूद्र पैदा हुए हैं - ऐसा प्रतिपादित किया जाता था। जैनाचार्यों ने वर्ण-व्यवस्था को कर्म-आधारित माना और सबकी समानता व धर्म-मार्ग पर आगे बढ़ने हेतु समान व्यवहार व अधिकार की बात कही।"3 इसप्रकार जैनधर्म सभी वर्गों में अधिक लोकप्रिय हुआ। इसी कारण जैनधर्म में भारतीय समाज के परम्परागत चारों वर्णों ने प्रवेश किया।
जैनधर्म की परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों की अवधारणा ने इसकी प्राचीनता
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ