Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
View full book text
________________
एक बहुत बड़े संघ को लेकर सारे उत्तर भारत में विहार किया।
आचार्यश्री का जन्म आषाढ़-कृष्णा विक्रम संवत् 1872 में 'येळगूड' गाँव में अपने ननिहाल में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम श्री गौड़ा एवं माता का नाम 'सत्यवती' था। इनका नाम 'सातगौडा' रखा गया। इनके दो बड़े भाई थे, जिनके नाम क्रमशः 'आदिगौडा' और 'देवगौडा' थे। छोटे भाई का नाम 'कुगौडा' और बहिन का नाम 'कृष्णा बाई' था। आचार्यश्री के जीवन पर उनके माता-पिता का गहरा प्रभाव पड़ा। उनका पूरा परिवार धर्मनिष्ठ था।1
सातगौडा का बचपन से ही निवृत्ति-मार्ग की ओर झुकाव था। आमोद-प्रमोद से बहुत दूर रहा करते थे। आप वीतरागी प्रवृत्तिवाले युवक थे। बाल्यकाल से ही वे शांति के सागर थे। मुनियों पर उनकी बड़ी आसक्ति थी, वे अपने कन्धे पर मुनिराज को बैठाकर 'वेदगंगा' और 'दूधगंगा' नदियों को पार करा देते थे। वे कपड़े की दुकान पर बैठते थे और ग्राहक से अपने मनपसंद का कपड़ा छाँटने, और बही में लिख देने को कह देते थे।
माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् 41 वर्ष की अवस्था में दिगम्बर साधु 'देवप्पा' के पास मुनिदीक्षा के लिये निवेदन किया, लेकिन मुनिश्री ने मुनिजीवन के असाधारण कष्टों को देखते हुये पहले इन्हें संवत् 1972 में क्षुल्लक-दीक्षा प्रदान की और 'शांतिसागर' नाम रख दिया।
आप तप:साधना में विशेष संलग्न रहते थे। एक बार 'कोगनोली' के जैन मन्दिर में ध्यानस्थ थे कि एक छः हाथ लम्बा सर्प वहाँ आया और इनको ध्यानस्थ देखकर शरीर पर चढ़ गया और शरीर से लिपट गया। जब मन्दिर के पंडितजी दीप जलाने अन्दर आये, तो सर्प को देखकर वह भाग खड़े हुये। वहाँ बहुत-से लोग एकत्रित हो गये। वहाँ एकत्रित जनसमूह सर्प की क्रीड़ा को देखता रहा। थोड़ी देर बाद वह सर्प स्वयं उतर गया और अन्यत्र चला गया। आचार्यश्री के जीवन में अनेक उपसर्ग आये, लेकिन आपने सबको शांतिपूर्वक सहन कर लिया। 'राजाखेड़ा' (राजस्थान) में एक बार छिद्दी ब्राह्मण गुण्डों के साथ नंगी तलवार लेकर आ गया था। सर्पराज तो कितनी ही बार आये और चले गये। एक बार असंख्य चींटियाँ आप के ऊपर चढ़ गईं, एक बड़ी चींटी तो आपके मुख्य लिंग पर काटने लगी, लेकिन आप साधना में लीन रहे और ध्यान से जरा भी विचलित नहीं हुये।
इसप्रकार गाँव-गाँव विहार करते हुये आप 'गिरनार क्षेत्र' में पहुँचे और वहाँ 'ऐलक' दीक्षा ग्रहण कर ली और जीवन-भर के लिये घी, नमक, दही, तेल और शक्कर – इन पाँच रसों का त्याग कर दिया। इसके पश्चात् 'करनाल' में पंचकल्याणक-महोत्सव के अवसर पर दीक्षा-दिवस के दिन सन् 1920 शक-संवत्
10136
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ