Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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आचार्यश्री कुंथूसागर जी 55
दक्षिण में कर्नाटक - प्रान्त के 'बेलगाँव' जिले में 'ऐनापुर' में सातप्पा व सरस्वती के पुत्र के रूप में वीर - निर्वाण - संवत् 2420 में आपका जन्म हुआ। माता-पिता ने नाम 'रामचन्द्र' रखा। रामचन्द्र के हृदय में बाल्यकाल से ही विनयशीलता व सदाचार के भाव जागृत हुये थे, जिन्हें देखकर लोग आश्चर्यचकित व सन्तुष्ट होते थे। रामचन्द्र को बाल्यावस्था में ही साधु-संयमियों के दर्शन की उत्कृष्ट इच्छा रहती थी। कोई साधु ऐनापुर में आते, तो यह बालक दौड़कर उनकी वन्दना के लिये पहुँचता था । बाल्यकाल से ही उसके हृदय में धर्म के प्रति अभिरुचि थी। सदा अपने सहधर्मियों के साथ तत्त्वचर्चा करने में ही समय बिताता था । इसप्रकार सोलह वर्ष व्यतीत हुये। अब माता - पिता ने रामचन्द्र का विवाह कराने का विचार प्रगट किया, तो रामचन्द्र ने विवाह के लिये मना किया एवं प्रार्थना की “पिताजी! इस लौकिक विवाह से मुझे संतोष नहीं होगा। मैं अलौकिक विवाह अर्थात् मुक्ति - लक्ष्मी के साथ विवाह करना चाहता हूँ।" माता-पिता ने पुनः आग्रह किया । माता-पिता की आज्ञा के उल्लंघन के भय से इच्छा न होते हुये भी रामचन्द्र ने विवाह की स्वीकृति दी।
बाल्यकाल से संस्कारों से सुदृढ़ होने के कारण यौवनावस्था में भी रामचन्द्र को कोई व्यसन नहीं था । व्यसन था तो केवल धर्मचर्चा, सत्संगति व शास्त्र-स्वाध्याय का था। बाकी व्यसन तो उनसे घबराकर दूर भागते थे । इसप्रकार पच्चीस वर्ष पर्यन्त रामचन्द्र ने किसी तरह घर में वास किया । परन्तु बीच-बीच में यह भावना जागृत होती थी कि "भगवान्! मैं इस गृहबंधन से कब छूहूँ। ? जिन - दीक्षा लेने का सौभाग्य कब मिलेगा? वह दिन कब आयेगा जब कि सर्वसंग परित्याग कर मैं स्वकल्याण कर सकूँ?"
दैववशात् इस बीच में माता-पिता का स्वर्गवास हुआ। विकराल काल की कृपा से भाई और बहन ने भी विदा ली। तब रामचन्द्रजी का चित्त और भी उदास हुआ। उनका बंधन छूट गया। तब संसार की स्थिति का उन्होंने स्वानुभव से पक्का निश्चय करके और भी धर्ममार्ग पर स्थिर हुये ।
रामचन्द्र के श्वसुर भी धनिक थे। उनके पास बहुत सम्पत्ति थी। परन्तु उनको और कोई सन्तान नहीं थी । वे रामचन्द्र से कई बार कहते थे कि " यह सम्पत्ति ( घर वगैरह ) तुम ही ले लो, मेरे यहाँ के सब कारोबार तुम ही चलाओ।" और रामचन्द्र अपने 'श्वसुर को दुःख न हो', इस विचार से कुछ दिन ससुराल में रहे भी। परन्तु मन में यह विचार किया करते थे किं "मैं अपना भी घर-बार छोड़ना चाहता हूँ। इनकी सम्पत्ति को लेकर मैं क्या करूँगा?" रामचन्द्र की इसप्रकार की वृत्ति से श्वसुर को दुःख होता था, परन्तु रामचन्द्र लाचार था। जब उसने सर्वथा गृहत्याग करने का
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ