Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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जयधवलाटीका के अन्त में दी गयी पद्य रचना से इनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त होती है। इन्होंने बाल्यकाल में (अबिद्धकर्ण— कर्णसंस्कार के पूर्व) ही जिनदीक्षा ग्रहण कर ली थी। कठोर ब्रह्मचर्य की साधना द्वारा वाग्देवी की आराधना में तत्पर रहे। इनका शरीर कृश था, आकृति भी भव्य और रम्य नहीं थी । बाह्य व्यक्त्वि के मनोरम न होने पर भी तपश्चरण, ज्ञानाराधना एवं कुशाग्र बुद्धि के कारण इनका अन्तरंग व्यक्तित्व बहुत ही भव्य था । ये ज्ञान और अध्यात्म के अवतार थे ।
जिनसेन मूलसंघ के पंचस्तूपान्वय के आचार्य हैं। इनके गुरु का नाम वीरसेन और दादागुरु का नाम आर्यनन्दि था। वीरसेन के एक गुरुभाई जयसेन थे । यही कारण है कि जिनसेन ने अपने आदिपुराण में 'जयसेन' का भी गुरुरूप में स्मरण किया है। जिनसेन का चित्रकूट, वंकापुर और बटग्राम से सम्बन्ध रहा है।26 वंकापुर उस समय वनवास देश की राजधानी थी, जो वर्तमान में धारवाड़ जिले में है। चित्रकूट भी वर्तमान ‘चित्तौड़' से भिन्न नहीं है। इसी चित्रकूट में एलाचार्य निवास करते थे, जिनके पास जाकर वीरसेनास्वामी ने सिद्धान्तग्रन्थ का अध्ययन किया था।
विद्वानों द्वारा लगाये गये विभिन्न समय- अनुमानों में इनका समय ईस्वी सन् की आठवीं शती का उत्तरार्द्ध सिद्ध हुआ है। इनकी केवल तीन ही रचनायें उपलब्ध है 1. पाश्र्वाभ्युदय, 2. आदिपुराण एवं 3. जयधवलाटीका ।
आचार्य विद्यानन्दि
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आचार्य विद्यानन्दि ऐसे सारस्वत आचार्य हैं, जिन्होंने प्रमाण और दर्शन-सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना कर श्रुत- परम्परा को गतिशील बनाया है। इनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में प्रामाणिक इतिवृत्त ज्ञात नहीं है । 'राजावलिकथे' में आ. विद्यानन्दि का उल्लेख आता है और संक्षिप्त जीवन-वृत्त भी उपलब्ध होता है, पर वे सारस्वताचार्य विद्यानन्दि नहीं हैं, परम्परा - पोषक विद्यानन्दि हैं।
आचार्य विद्यानन्दि की रचनाओं के अवलोकन से यह अवगत होता है, कि ये दक्षिण-भारत कर्नाटक प्रान्त के निवासी थे। इसी प्रदेश को इनकी साधना और कार्यभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है। किंवदन्तियों के आधार पर यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण-परिवार में हुआ था। इन्होंने कुमारावस्था में ही वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनों का अध्ययन कर लिया था।
सारस्वताचार्य विद्यानन्दि की कीर्ति ईस्वी सन् की 10वीं शताब्दी में ही व्याप्त हो चुकी थी। उनके महनीय व्यक्तित्व का सभी पर प्रभाव था । दक्षिण से उत्तर तक उनकी प्रखर न्यायप्रतिभा से सभी आश्चर्यचकित थे ।
विद्यानन्दि गंगनरेश शिवमार द्वितीय ( ईस्वी सन् 810 ) और राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (ईस्वी सन् 813 ) के समकालीन हैं, और इन्होंने अपनी कृतियाँ प्रायः इन्हीं के राज्य- समय में बनायी हैं। आचार्य विद्यानन्दि का समय ईस्वी सन्
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ