Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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व्याख्या में निश्चयनय के साथ व्यवहारनय का भी अवलम्बन, व्याख्यान की पुष्टि-हेतु उद्धरणों का प्रस्तुतीकरण, एवं पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण। आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव
आचार्य कुन्दकुन्द के 'नियमसार' की 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका के रचयिता पद्मप्रभमलधारिदेव हैं। इन्होंने अपने को कविजनोंपयोगमित्र, पंचेन्द्रिमप्रसरवर्जित और गात्रमात्रपरिग्रह बताया है। पद्मप्रभ ने अपनी गुरुपरम्परा या गण-गच्छ का कोई उल्लेख नहीं किया है। पद्मप्रभमलधारिदेव 'पद्मनन्दिपंचविंशति' के कर्ता पद्मनन्दि से भिन्न ही प्रतीत होते हैं।
नियमसार-टीका के साथ 'पार्श्वनाथस्तोत्र' की रचना भी इनके द्वारा की गयी है। 'नियमसार' की टीका में 'नियमसार' के विषय का ही स्पष्टीकरण किया गया है। सिद्धान्तशास्र के मर्मज्ञ विद्वान होने के कारण टीका में आये हुये विषयों का विशद स्पष्टीकरण किया है। आचार्य शुभचन्द्र
___ आचार्य शुभचन्द्र का 'ज्ञानार्णव' या 'योगप्रदीप' नामक ग्रन्थ प्राप्त है। किंवदन्ती है कि भर्तृहरि को मुनिमार्ग में दृढ़ करने और सच्चे योग का ज्ञान कराने के लिये शुभचन्द्र ने 'योगप्रदीप' अथवा 'ज्ञानार्णव' की रचना की।
'ज्ञानार्णव' के प्रारम्भ में समन्तभद्र, देवनन्दि, भट्टाकलंक और जिनसेन का स्मरण किया है। इसमें सबसे अन्तिम जिनसेनस्वामी हैं, जिन्होंने जयधवलाटीका का शेषभाग विक्रम-संवत् 894 में समाप्त किया था। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञानार्णव की रचना ही सन् 837 के पश्चात् हुई है। अतः शुभचन्द्र का समय विक्रम-संवत् की 11वीं शती होना चाहिये। इससे भोज और मुंज की समकालीनता भी घटित हो जाती है।
शुभचन्द्र की एकमात्र रचना 'ज्ञानार्णव' उपलब्ध है। महाकाव्य के समान लेखक ने इसके विषय का भी सर्गों में विभाजन किया है। समस्त ग्रन्थ 42 सगों में विभक्त हैं। अन्त में ज्ञानार्णव का महत्त्व बतलाते हुये ग्रन्थ समाप्त किया है
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्यं चित्ते को वेत्ति तत्त्वतः।
यज्ञानात्तीर्यते भव्यैर्दुस्तरोऽपि भवार्णवत:॥ आचार्य अनन्तकीर्ति
'वृहत्सर्वज्ञसिद्धि' और 'लघुसर्वज्ञसिद्धि' के कर्ता अनन्तकीर्ति हैं, जिनके शान्तिसूरि के 'जैन तर्कवार्तिक' में उल्लेख एवं उद्धरण पाये जाते हैं, तथा अभयदेवसूरि तर्कपंचानन की 'तत्त्वबोधविधायिनी' अपरनाम 'वादमहार्णवसन्मति-टीका' में जिनका अनुसरण पाया जाता है।
भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ
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