Book Title: Bhagwan Mahavir ki Parampara evam Samsamayik Sandarbh
Author(s): Trilokchandra Kothari, Sudip Jain
Publisher: Trilok Ucchastariya Adhyayan evam Anusandhan Samsthan
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इनके पिता का नाम 'रल्हण पंडित' था, जो संस्कृत और प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। ये गुर्जर कुल में उत्पन्न हुये थे। कवि की माता का नाम 'जिनमती' बताया गया है। कवि ने इसी की प्रेरणा से 'पज्जुण्णचरिउ' की रचना की है, जिसका समयकाल ई. सन् की 12वीं शती का पूर्वार्द्ध माना गया है । कवि की एकमात्र रचना 'प्रद्युम्नचरित' है।
कवि लाखू
यं. लाखू द्वारा विरचित 'जिनदत्तकथा' अपभ्रंश के कथा- काव्यों में उत्तम रचना है। लाखू का जन्म जायसवंश में हुआ है। इनके प्रपितामह का नाम 'कोशवाल' था, जो जायसवंश के प्रधान तथा अत्यन्त प्रसिद्ध व्यक्ति थे। कवि का साहित्यिक जीवन वि सं. 1275 से आरम्भ होकर वि. सं. 1313 तक बना रहता है । कवि की तीन रचनायें उपलब्ध हैं 1. चंदणछट्ठीकहा, 2. जिणयत्तकहा, और 3. अणुवयरयण- पई ।
कवि यश: कीर्ति प्रथम
'चंदप्पहचरिउ' के रचयिता कवि यश: कीर्ति हैं। कवि ने इस ग्रंथ को हुम्बडकुलभूषण कुंवरसिंह के सुपुत्र सिद्धपाल के अनुरोध से रचा है। कवि ने इस ग्रंथ की रचना 11वीं शती ई. के अन्त में या 12वीं शती के प्रारम्भ में की होगी । कवि देवचन्द
कवि देवचन्द ने 'पासणाहचरिउ' की रचना गुंदिज्ज नगर के पार्श्वनाथ मंदिर में की है । कवि मूलसंघ गच्छ के विद्वान् वासवचन्द के शिष्य थे। देवचन्द्र का समय 12वीं शताब्दी के लगभग है। महाकवि देवचन्द्र की एकमात्र रचना 'पासणाहचरिउ' उपलब्ध है।
महाकवि रइधू
महाकवि रइधू के पिता का नाम 'हरिसिंह' और पितामह का नाम 'संघपति देवराज' था। इनकी माँ का नाम 'विजयश्री' और पत्नी का नाम 'सावित्री' था । रइधू 'पद्मावतीपुरवालवंश' में उत्पन्न हुये थे। इनका अपरनाम 'सिंहसेन' भी बताया जाता है । इधू अपने माता-पिता के तृतीय पुत्र थे। इनके अन्य दो बड़े भाई भी थे, जिनके नाम क्रमशः 'बहोल' और 'मानसिंह' थे। रइधू काष्ठासंघ माथुरगच्छ की पुष्करगणीय शाखा से सम्बद्ध थे।
हिसार, रोहतक, कुरुक्षेत्र, पानीपत, ग्वालियर, सोनीपत और योगिनीपुर आदि स्थानों के श्रावकों में उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। वे ग्रन्थ-रचना के साथ मूर्ति - प्रतिष्ठा एवं अन्य क्रिया-काण्ड भी करते थे। महाकवि रइधू ने अकेले ही विपुल परिमाण में ग्रन्थों की रचना की है। इन्हें महाकवि न कहकर एक पुस्तकालय - रचयिता कहा
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भगवान् महावीर की परम्परा एवं समसामयिक सन्दर्भ